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गीता जयंती का उत्सव

हमें फॉलो करें गीता जयंती का उत्सव
- पूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवले

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आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के मंगलप्रभात के समय कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर योगेश्वर श्रीकृष्ण के मुखारविंद से गीता का ज्ञान प्रवाह बहा और भारत को गीता का अमूल्य ग्रंथ प्राप्त हुआ। तबसे यह दिन भारत के ज्वलंत सांस्कृतिक इतिहास का एक सुवर्ण पृष्ठ बनकर रहा है।

केवल भारत ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के सूज्ञ व्यक्ति भावपूर्ण अन्तःकरण से गीता जयंती का उत्सव प्रतिवर्ष मनाते हैं। किसी भी ग्रंथ का जन्मदिवस मनाया जाना यह कदाचित्‌ सम्पूर्ण विश्व में गीता की ही विशेषता मानी जा सकती है।

गीता अर्थात्‌ योगश्वर श्रीकृष्ण के मुखारविंद से स्रवित माधुर्य व सौंदर्य का वांगयीन स्वरूप! भगवान गोपालकृष्ण की प्रेम मुरली ने गोकुल में सभी को मुग्ध किया तो योगेश्वर कृष्ण की ज्ञान मुरली गीता ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर अर्जुन को युद्ध के लिए प्रवृत्त किया। तबसे लेकर आज तक अनेक ज्ञानी, भक्त, कर्मयोगी, ऋषि, संत, समाजसेवक और चिन्तक, फिर वे किसी भी देश या काल के हों, किसी धर्म या जाति के हों, उन सभी को गीता ने मुग्ध किया है। 'कृष्णस्तु भगवान स्वयं' से मुख से प्रवाहित इस वांगमय ने मानव को जीवन जीने की हिम्मत दी है।

जीवन एक संग्राम है और इसलिए कुरुक्षेत्र की रणभूमि में गीता का गान एक सुयोग्य पृष्ठभूमि का सर्जन है। भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर, विश्व के मानव मात्र को गीता के ज्ञान द्वारा जीवनाभिमुख बनाने का चिरन्तन प्रयास किया है। जीवन रोने के लिए नहीं है, भाग जाने के लिए नहीं है, हँसने के लिए है, खेलने के लिए हैं, संकटों से, हिम्मत से लड़ने के लिए है, वैसे ही अखण्ड आशा और दुर्दम्य श्रद्धा के बल पर विकास करने के लिए है। गीता मानव मात्र को जीवन में प्रतिक्षण आने वाले छोटे-बड़े संग्रामों के सामने हिम्मत से खड़े रहने की शक्ति देती है।

किसी भी विशिष्ट धर्मसंघ या सम्प्रदाय की धुन में न पड़कर गीताकार ने मानव जीवन के चिरन्तन मूल्यों को गीता में ग्रथित किया है। ऐसा अमूल्य ग्रंथ मानव मात्र को देकर भी कृष्ण की नम्रता कितनी अद्भुत है। भगवान स्वमुख से कहते हैं कि इसमें मेरा कुछ भी मौलिक नहीं है। 'ऋषिभिर्बहुधा गीतं' ऋषियों ने जो अनेक बार अनेक प्रकारों से गाया है, वही मैं फिर से कह रहा हूँ।

भगवान की इस नम्रता से प्रसन्न होकर गाए हुए एक स्त्रोत में श्रीमदाद्यशंकराचार्य ने भगवान श्रीकृष्ण को 'मेघसुंदरम्‌' कहकर उनकी बिरुदावलि गाई है। समुद्र से पानी खींचकर बनने वाले बादल का पानी भले ही उसका स्वयं का न हो, परन्तु उस पानी की मिठास उसकी अपनी है। उसी तरह कदाचित्‌ ज्ञान, विचार स्वयं के न भी हों फिर भी गीता का जो विरला ही माधुर्य है, वह श्रीकृष्ण का स्वयं का है।

गीता वैश्विक ग्रंथ है। वास्तव में तत्वज्ञान का एक अमूल्य ग्रंथ है।
"Gita is not the Bible of Hinduism but it is the Bible of Humanity"

फिर भी तुम्हारा धर्मग्रंथ कौन सा है, ऐसा पूछकर हमारा उपहास करने वाले लोगों को हम हिम्मत से कह सकते हैं कि गीता हमारा विश्व धर्मग्रंथ है। गीता भगवान ने स्वमुख से गायी है यही उसका वैशिष्ठ्य है। वेदव्यास ने बाद में गीता को महाभारत में ग्रंथित किया है।

वांगमय रसिकों को गीता में वांगयीन सौंदर्य दिखाई देता है, साहित्य शौकीनों का शौक गीता पूर्ण करती है, कर्मवीरों को गीता कर्म करने का उत्साह देती है, ज्ञानियों को ज्ञानगंगा में डुबकी लगाने का अवसर गीता देती है। भक्तों को गीता में भक्ति का रहस्य मिलता है। व्याकरणकारों के हृदय गीता के शब्दों का लालित्य देखकर डोलने लगते हैं। यह सब गीता में ही, परन्तु क्या केवल इन्हीं करणों से गीता की लोकप्रियता है?

पापी से पापी मनुष्य भी गीता माँ के पास आया तो भी गीता माँ उसका तिरस्कार या उपेक्षा न कर उसको अपने पास लेकर प्रेम की ऊष्मा देती है। किसी दुष्ट व्यक्ति को परिवार के लोग घर से बाहर निकाल सकते हैं, समाज उसका बहिष्कार कर सकता है या एकाध राजा उसको देश निकाले की सजा दे सकता है, परन्तु माँ जगदम्बा उसको जगत्‌ से बाहर कैसे निकाल सकती है? गीता किसी भी मानव में स्थित उसकी श्रद्धा को नष्ट नहीं होने देती।

निराशा के अंधकार में भटकने वाले मानव के जीवन में माँ गीता आशा का प्रकाश बिखेरती है। हतोत्साही मानव को गीता नवीन प्रकाश देती है। निराशा तो नास्तिकता है। 'भगवान मेरे साथ हैं' ऐसा मानने वाला मानव कभी निराश नहीं होता। निराश मनुष्य को गीता कहती है :-

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तोत्तिष्ट परन्तप॥

निराशा हृदय की क्षुद्र दुर्बलता का लक्षण है। मानव असफल होने पर निराश बनता है, परन्तु असफलता सफलता के विरुद्ध नहीं है, वह केवल विलंब का सूचना करती है। असफलता से निराश होकर बैठने की अपेक्षा मनुष्य को अधिक शक्ति से काम में लगना चाहिए। प्रयत्नशील मानव के जीवन में आने वाली असफलताएँ सीढ़ियों का रूप लेकर सफलता का सोपान बनाती हैं। निराशावादी मनुष्य गुलाब पर काँटे देखता हैं। गीता उसको काँटों में गुलाब देखने की दृष्टि देती है।

जो मनुष्य पापी नहीं है, (क्योंकि उसमें पाप करने की हिम्मत नहीं होती) वैसे ही जो निराश नहीं बनता (क्योंकि वह कुछ करता ही नहीं) ऐसे सामान्य मनुष्य के जीवन में भी रस भरने का काम गीता करती है। गीता ऐसे मनुष्य को कहती है,

'तस्मात्‌ योगी भव'
तू योगी बन यानी कहीं भी जुड़ जा। एकाध कार्य, संस्कति, ध्येय, राष्ट्र या ईश्वर के साथ जुड़े बिना जीवन का विकास असंभव है। वृक्ष भूमि के साथ जुड़ा हुआ होता है, इसलिए उसका जीवन सफल बनता है।

विभिन्न वर्णों के लोगों को भी गीता अलग-अलग उपदेश देती है। ब्राह्मण संस्कृति की प्रेरक शक्ति है, इसलिए गीता उसको शम, दम, तप, शौच आदि गुणों का वर्धन तथा संवर्द्धन करने को कहती है। क्षत्रिय संस्कृति के रक्षक होते हैं, इसलिए गीता उनको शौर्य, तेज, धैर्य, दक्षता आदि गुणों का महत्व समझाती है। वैश्य संस्कृति के पोषक होने के कारण गीता उनको कृषि, गोरक्ष, वाणिज्य में समरस बनने का आदेश देती है। शूद्र संस्कृति का सेवक होता है। समाज की भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला यदि चाहे तो शोषक भी बन सकता है, इसलिए गीता इस वर्ग को सेवा की भावना से काम करने का आदेश देती है।

वैसे ही जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ जिसने अच्छी तरह से बिताई हैं, वह व्यक्ति अंतिम अवस्था अर्थात मृत्यु से डरता नहीं है। ऐसा कहकर गीताकार ने विभिन्न आश्रमों के लोगों को भी मार्गदर्शन दिया है।

जीवन में आती रहने वाली शैशव, यौवन व वार्धक्य ये तीन अवस्थाएँ भी बहुत ही सूचक व मार्गदर्शक हैं। प्रत्येक अवस्था परिवर्तनशील है, परन्तु एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करते समय पूर्व अवस्था में जो सुंदर और जीवनोपयोगी बातें थीं, उनको साथ लेकर आगे बढ़ना चाहिए। शैशव में की विद्या प्राप्ति की जिज्ञासा व आकर्षण यदि जीवन भर साथ रहें तो सम्पूर्ण जीवन का काल सुवर्णकाल बनकर रहेगा। निश्चिन्तता व निष्पापता भी बचपन से ही मानव को प्राप्त होने वाले वरदान हैं।

इस प्रकार विभिन्न प्रकार के मनुष्यों को उनके अनुरूप ऐसा मार्गदर्शक संदेश देने वाली गीता अंत में मानव को सच्चा मानव बनने को कहती है। अंत में इतना ही कहना है कि जब हमारा जीवन गीता का प्राणवान भाष्य बनेगा, तभी सच्चे अर्थ में गीता जयंती मनाई है, ऐसा कहा जाएगा। गीता माँ का पवित्र संदेश अपने जीवन में चरितार्थ करके हम भी सच्चे अर्थ में धनुर्धर पार्थ बनने का संकल्प करें।

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