लो फागुन आयो रे...रंग-गुलाल लायो रे। टेसू के अंगारों से दहकते फूलों और रंग-गुलाल के बीच मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया।
भगोरिया के समय धार, झाबुआ, खरगोन आदि क्षेत्रों के हाट-बाजार मेले का रूप ले लेते हैं और हर तरफ बिखरा नजर आता है फागुन और प्यार का रंग।
लाल-गुलाबी, हरे-पीले रंग के फेटे, कानों में चांदी की लड़ें, कलाइयों और कमर में कंदोरे, आंखों पर काला चश्मा और पैरों में चांदी पहने लड़के, जामुनी, कत्थई, काले, नीले, नारंगी आदि चटख-शोख रंग में भिलोंडी लहंगे और ओढ़नी पहने, सिर से पांव तक चांदी के गहनों से सजी शोख महिलाएं... मांदल की थाप और ठेठ आदिवासी गीतों पर थिरकते कदम, गुड़ की जलेबी और बिजली से चलने वाले झूलों से लेकर लकड़ी के हिंडोले तक दूर-दूर तक बिखरी शोखी पहचान है भगोरिया की।
भगोरिया के हाट-बाजार में आदिवासी नवयुवक-युवतियां अपने लिए जिंदगी का एक नया रंग ढूंढते नजर आते हैं। जी हां, भगोरिया का शाब्दिक अर्थ ही होता है भाग कर शादी करना। इसलिए इस हाट में लड़के-लड़कियां मांदल की थाप पर थिरकते हुए अपने लिए जीवनसाथी चुन लेते हैं।