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संजा गीतों से गूंज रहा है संजा उत्सव

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आधुनिकता के दौर में संजा पर्व की लोकप्रियता कम हो चली है। अब केवल लोक-बस्तियों में ही संजा पर्व मनाते देखा जा सकता है। वहीं भौतिकता के युग में गोबर से बनने वाली संजा अब कागज-पन्नी इत्यादि से तैयार भी मिलने लगी है, जिसे दीवार पर चिपकाना मात्र होता है। श्राद्ध पर्व के दौरान मनाए जा रहे संजा पर्व में रविवार को छठ पर छबड़ी बनाई गई। संजा उत्सव एक गीत पर्व है। प्रतिवर्ष श्राद्घ पक्ष की सोलह संध्याएं संजा गीतों से गूंज उठती हैं।

इन गीतों से विदित होता है कि संजा मन फूलों जैसा सुकोमल है। उसे अपनी मां, भाई, भावज, भतीजों से अगाध प्यार मिलता है।

लोक कलाकार कृष्णा वर्मा के अनुसार पीहर का परिवेश प्रिय है, कच्ची मिट्टी का घर-आंगन, सोने जैसे दिन, चांदी जैसी रातें, केल और खजूर के हरे-भरे वृक्षों का सुखद वातावरण, सुंदर मोर-मोरनी, पहनने के लिए कीमती वस्त्र आभूषण और खाने के लिए मन-पंसद मिठाइयां। मगर विवाह के बाद उसका फूल जैसा मन मुरझा जाता है। ससुराल में उसे पराया वातावरण मिला- रुखे स्वभाव का पति, सताने वाली सास, दुःख देने वाला देवर।

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नाना-नाना छबल्या मंगई दो बीर

सासरिया में खेलांगा
सासरिया का खोटा लोग

खाय खजूरा बेचे बोर
बोर की गुठली लई गया चोर

चोर का घर में नाचे मोर।
छोटे-छोटे छबल्ये बर्तन-खिलौने
मंगवा दीजिए भैया, ससुराल में उनसे खेलूंगी।

ससुराल वाले बड़े ही खोटे खराब लोग हैं। वे खजूर खाते हैं और बोर बेच देते हैं। बोर की गुठलियों को भी चोर ले गए हैं। चोरों के घर में मोर नाच रहे हैं। सुमधुर कंठों से फूट पड़ते हैं ऐसे संजा गीत।

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