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सांझी पर्व के संरक्षण के लिए जागरूकता की जरूरत...

दशहरे के दिन होता है देवी सांझी का विसर्जन

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सिर पर तसला रखे छोटी-छोटी लड़कियां भादों के महीने में जोहड़ से मिट्टी लाती थीं। उस चिकनी काली मिट्टी से देवी दुर्गा और पार्वती का प्रतीक ‘सांझी मैय्या’ के अंग और आभूषण तैयार करती थीं। लेकिन अब गांव-देहात में यह सांझी कला आधुनिकता के रंग के आगे दम तोड़ रही है।

कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय में युवा एवं सांस्कृतिक मामलों के विभाग के निदेशक एवं लोक वाद्य यंत्रों को पुनर्जीवन प्रदान करने में अपने योगदान के लिए जाने जानेवाले अनूप लाठर ने बताया, ‘निश्चित रूप से यह कला दम तोड़ रही है और इसके संरक्षण के लिए जागरूकता की जरूरत है।’

अश्विन माघ में नवरात्रों से पूर्व श्राद्ध पक्ष लगते ही जोहड़ से मिट्टी लाकर छोटी लड़कियां सितारे और देवी के आभूषण बनाती थीं। सूखने पर उन्हें चूने में रंग कर गेरूए रंग का तिलक लगाया जाता था।

परंपरा के अनुसार श्राद्ध के अंतिम दिन अमावस्या को दीवार पर गाय का गोबर लगाकर उसके ऊपर सितारों से देवी के शरीर को आकार दिया जाता है और बाद में उसका चेहरा, हाथ और पैर चिपकाए जाते हैं। इसके बाद मिट्टी से बनाए गए गहनों को हाथों और पैरों में पहनाया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि कुंवारी कन्याएं योग्य वर का वरदान मांगने के लिए देवी सांझी को स्थापित करती हैं। नवरात्रों में लगातार नौ दिन तक सुबह देवी को भोग लगाया जाता है और शाम के समय घर की महिलाएं और पास-पड़ोस की कन्याएं देवी की वंदना करते हुए उसे भोजन कराती हैं।

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अंतिम दिन यानी दशहरे के दिन देवी को दीवार से विधि-विधान के साथ उतारा जाता है और शरीर के बाकी अंगों को तो फेंक दिया जाता है लेकिन उसके मुख को एक छेद किए हुए घड़े में रख दिया जाता है और रात्रि के समय उसके भीतर दीपक जलाकर महिलाएं और लड़कियां गीत गाते हुए जोहड़ में उसका विसर्जन कराने जाती हैं।

ऐसी परंपरा है कि विसर्जन के समय गांव के लड़के लट्ठ आदि लेकर जोहड़ के भीतर मौजूद रहते हैं और सांझी के मटकों को फोड़ते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि सांझी तैरते हुए जोहड़ के दूसरे किनारे तक ना पहुंचे। ऐसा कहा जाता है कि जोहड़ के दूसरे किनारे तक यदि सांझी पहुंच गई तो यह गांव के लिए अपशकुन होगा।

लेकिन अब गांव-देहात में दशहरे के अवसर पर सांझी के दर्शन कम होते जा रहे हैं। गांव-देहात में इसे पिछड़ेपन का प्रतीक मान कर लोग धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं।

रोहतक जिले के बाह्मनवास गांव की सुमित्रा ने बताया कि गांव देहात में अब लोग सांझी की स्थापना करना पिछड़ापन मानने लगे हैं। हां, कुछ घरों में अब भी सांझी की स्थापना जरूर होती है, लेकिन आज से 20-25 साल पहले जो उत्साह होता था और जो सांझी की धूम होती थी, वह अब नहीं रही।

अनूप लाठर ने कहा कि ग्रामीण आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने मूल्यों और रीति रिवाजों, तीज-त्योहारों से कटते जा रहे हैं। उनमें यह जागरूकता पैदा किए जाने की जरूरत है कि धरोहरों से कटा हुआ समाज जड़ से उखड़े पेड़ की तरह होता है। ये तीज-त्योहार और परंपराएं ही हैं, जो जीवन में नए उत्साह का संचार करती हैं और हमें जमीन से जोड़े रखती हैं। (भाषा)

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