शास्त्र का कथन है-
'गुरु वही जो विपिन बसावे, गुरु वही जो संत सिवावे।
गुरु वही जो राम मिलावे, इन करनी बिन गुरु ना कहावे॥'
इन वचनों का सार है कि गुरु वही है जो राम अर्थात् उस परम तत्व से साक्षात्कार कराने में सक्षम हो, गुरु अर्थात् जागा हुआ व्यक्तित्व। इसी प्रकार शिष्य वह है जो जागरण में उत्सुक हो।
गुरु ईश्वर और जीव के बीच ठीक मध्य की कड़ी है, इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्य के जीवन में गुरु की उपस्थिति बड़ी आवश्यक है। गुरु ही वह द्वार है जहां से जीव परमात्मा में प्रवेश करता है। गुरु निद्रा व जागरण दोनों अवस्थाओं का साक्षी होता है। सिद्ध संत सहजो कहती हैं कि 'राम तजूं पर गुरु ना बिसारूं' अर्थात् मैं उस परम तत्व का भी विस्मरण करने को तैयार हूं लेकिन गुरु का नहीं क्योंकि यदि गुरु का स्मरण है; गुरु समीप है तो उस परम तत्व से साक्षात्कार पुन: संभव है।
गुरु व्यक्ति नहीं अपितु एक अवस्था का नाम है ऐसी अवस्था जब कोई रहस्य जानने को शेष नहीं रहा किंतु फिर भी करुणावश वह इस जगत् में है, जो जाना गया है उसे बांटने के लिए है।
जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश को सीधे देखना आंखों के लिए हानिकारक है, उसके लिए एक माध्यम होना आवश्यक है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर का साक्षात्कार भी जीव सीधे करने में सक्षम नहीं उसके लिए भी गुरु रूपी माध्यम आवश्यक है क्योंकि ध्यान-समाधि में जब वह घटना घटेगी और परमात्मा अपने सारे अवगुंठन हटा तत्क्षण प्रकट होगा तो उस घटना को समझाएगा कौन! क्योंकि जीव इस प्रकार के साक्षात्कार का अभ्यस्त नहीं वह तो बहुत भयभीत हो जाएगा जैसे अर्जुन भयभीत हुआ था भगवान कृष्ण का विराट रूप देखकर, इसलिए गुरु का समीप होना आवश्यक है।
गुरु के माध्यम से ही परमात्मा की थोड़ी-थोड़ी झलक मिलनी शुरू होती है। परमात्मा के आने की खबर का नाम ही गुरु है। जब गुरु जीवन में आ जाए तो समझिए कि अब देर-सवेर परमात्मा आने ही वाला है। एक शब्द हमारी सामाजिक परम्परा में है 'गुरु बनाना', यह बिल्कुल असत्य व भ्रामक बात है क्योंकि यदि जीव इतना योग्य हो जाए कि अपना गुरु स्वयं चुन सके तो फिर गुरु की आवश्यकता ही नहीं रही।
सत्य यही है कि गुरु ही चुनता है जब शिष्य तैयार होता है शिष्य होने के लिए। गुरु की ही तरह शिष्य होना भी कोई साधारण बात नहीं है, शिष्य अर्थात् जो जागरण में उत्सुक हो। वर्तमान समय में गुरु व शिष्य दोनों की परिभाषाएं बदल गई हैं। आज अधिकांश केवल सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए गुरु-शिष्य परंपरा चल रही है। वर्तमान समय में गुरु यह देखता है कि सामाजिक जीवन में उसके शिष्य का कद कितना बड़ा और शिष्य यह देखता है कि उसका गुरु कितना प्रतिष्ठित है।
जागरण की बात विस्मृत कर दी जाती है, गुरु इस बात की फिक्र ही नहीं करता कि वह जिसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर रहा है व जागरण में उत्सुक भी है या नहीं। वास्तविकता यह है कि जब शिष्य की ईश्वरानुभूति की प्यास प्रगाढ़ हो जाती है तब गुरु उसे परमात्मा रूपी अमृत पिलाने स्वयं ही उसके जीवन में उपस्थित हो जाते हैं। हमारे सनातन धर्म ने भी ईश्वर को रस रूप कहा है 'रसौ वै स:'।
गुरु व शिष्य दोनों ही इस जगत् की बड़ी असाधारण घटनाएं है क्योंकि यह एकमात्र संबंध है जो विशुद्ध प्रेम पर आधारित है और जिसकी अंतिम परिणति परमात्मा है।
-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया