कुमाऊं के पूर्वोत्तर भू-भाग महाकाली नदी के दोनों ओर, कुमाऊं और पश्चिमी नेपाल में, मनाया जाने वाला महत्वपूर्ण लोक उत्सव है सातों-आठों। आजकल सातों-आठों पर्व की धूम है। रविवार को भाद्रपद की सप्तमी पर पड़ रहे सातों और सोमवार को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर पड़ रहे आठों के दो दिनों में गांव की सभी युवतियां और महिलाएं गौरा और महेश (शिव और पार्वती) को पूज रही हैं।
इसमें गौरा और महेश की जिन आकृतियों की पूजा की जाती है उन्हें गंवार कहा जाता है, ये गंवारे खेतों में बोई गई फसलों- सूंट, धान, तिल, मक्का, मडुवा, भट आदि की बालियों से पौंध बनाई गई मानव आकृतियां होती हैं। उनको गौरा का रूप देने के लिए साड़ी, पिछौड़ा, चूडियां, बिंदी से पूरा शादीशुदा महिला की तरह श्रृंगार कराया जाता है। महेश को भी पुरुषों का परिधान पहना कुर्ता, पजामा और ऊपर से शॉल भी ओढ़ाया जाता है। दोनों को मुकुट भी पहनाए जाते हैं। इससे पूर्व पंचमी के दिन पांच प्रकार के अनाज तांबे के बर्तन में पंचमी को ही भिगो दिया जाता है, उस बर्तन के बाहर पांच जगह थोड़ी-थोड़ी मात्रा में गाय का गोबर लगाया जाता है जिसमें दूब घास और टीका लगाया जाता है, इसके साथ-साथ इस बर्तन में एक पोटली में गेहूं भी बांधकर रखे जाते हैं।
सातों के दिन दोपहर को महिलाएं सजधज कर नौले या धारे (पानी के स्रोत) पर पंचमी को भिगाए गए बिरुडों को धोती हैं, धोने से पहले नौले या धारे पर पांच जगह टीका लगाया जाता है और शगुन गीत भी गाए जाते हैं। बिरुड़े धोकर वापस भिगोकर रख दिए जाते हैं और उसमें से गेहूं की पोटली निकालकर गमरा की पूजा के लिए लेकर जाते हैं। सातों के दिन गौर की ही पूजा होती है, इस पूजा के लिए गेहूं की पोटली के साथ-साथ फूल, सीजनल फल और अन्य पूजा की सामग्री भी रखी जाती है। पूजा के बाद महिलाएं गाने गाती हैं और नृत्य भी करती हैं। जबकि अष्टमी को महेश्वर यानी शिव की पूजा होती है। इस दिन भी महिलाएं सातों-आठों की पूजा के साथ ही कहानी भी एक-दूसरे को सुनाती हैं।
कहा जाता है कि सप्तमी को मां गौरा ससुराल से रूठकर अपने मायके आ जाती हैं, उन्हें लेने के लिए अष्टमी को भगवान महेश यानी शिव आते हैं। सातों-आठों (सातूं-आठूं) में सप्तमी के दिन मां गौरा व अष्टमी को भगवान शिव की मूर्ति बनाई जाती है। लोकपर्व सातों-आठों की शुरुआत दो दिन पहले हो जाती है।
भादो मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को बिरुड़ पंचमी कहा जाता है। इस दिन घरों में तांबे के बर्तन में पांच या सात अनाजों को पानी में भिगो दिया जाता है। इसमें दाड़िम, हल्दी, सरसों, दूर्वा के साथ एक सिक्के की पोटली रखी जाती है। सातूं के दिन महिलाएं बांह में डोर धारण करती हैं। जबकि आठूं के दिन गले में दुबड़ा (लाल धागा) धारण करती हैं। इस पर्व को लेकर पौराणिक कथा प्रचलित है। बिरुड़ा अष्टमी के दिन महिलाएं गले में दुबड़ा (लाल धागा) धारण करती हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार पुरातन काल में एक ब्राह्मण था जिसका नाम बिणभाट था। उसके सात पुत्र व सात बहुएं भी थीं लेकिन इनमें से सारी बहुएं निसंतान थी। इस कारण वह बहुत दुखी था। एक बार वह भाद्रपद सप्तमी को अपने यजमानों के यहां से आ रहा था। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। नदी पार करते हुए उसकी नजर नदी में बहते हुए दाल के छिलकों पर पड़ी। उसने ऊपर से आने वाले पानी की ओर देखा तब उसकी नजर एक महिला पर पड़ी जो नदी के किनारे कुछ धो रही थी। वह उस स्त्री के पास जाकर देखा तो वह स्त्री कोई और नहीं बल्कि खुद देवी पार्वती थी, और कुछ दालों के दानों को धो रही थीं।
बिणभाट ने बड़ी सहजता से इसका कारण पूछा तब उन्होंने बताया कि वह अगले दिन आ रही बिरुड़ाष्टमी पूजा के विरूड़ों को धो रही हैं। बहु ने ससुर के कहे अनुसार अगले दिन व्रत रखकर दीपक जलाया और पंच्च अनाजों को एकत्र कर उन्हें एक पात्र में डाला। जब वह उन्हें भिगो रही थी तो उसने एक चने का दाना मुंह में डाल लिया जिससे उसका व्रत भंग हो गया। इसी प्रकार छहों बहुओं का व्रत भी किसी न किसी कारण भंग हो गया। सातवीं बहु सीधी थी। उसे गाय-भैंसों को चराने के काम में लगाया था। उसे जंगल से बुलाकर बिरुड़ भिगोने को कहा गया। उसने दीपक जला विरूड़ भिगोए। तीसरे दिन उसने विधि-विधान के साथ सप्तमी को उन्हें अच्छी तरह से धोया। अष्टमी के दिन व्रत रखकर शाम को उनसे गौरा-महेश्वर की पूजा की। दूब की गांठों को डोरी में बांध दुबड़ा पहना और बिरुड़ों का प्रसाद ग्रहण किया। मां पार्वती के आशीर्वाद से दसवें माह उसकी कोख से पुत्र ने जन्म लिया।
कहा जाता है कि इस पूजा से जिनके घर में अन्न नहीं होता अन्न आता है, जिसके घर में धन नहीं होता, धन आता है और जिसके घर में संतान नहीं होती, संतान आती है। स्त्री केन्द्रित इस उत्सव में समूचा समाज गतिशील होकर एकता की मिसाल पेश करता है। मानव जीवन और खास कर खेतिहर समाजों के लिए नई उमंग ले कर आने वाली ऋतु वर्षा के विदा होने के लगभग मनाया जाने वाला यह लोक उत्सव मानव जीवन और खास कर खेतिहर समाजों के लिए नई उमंग लेकर आता है।