(बुरहानुद्दीन शकरूवाला)
खुशनसीब ऐ शफ्फाको नूर सा चेहरा
हमारी आँखों के सजदों में सुबहो-शाम रहे।
बकाऐ कौम की खातिर बहुत जरूरी है,
कि आप जैसा कोई रहबरो इमाम रहे।
दाऊदी बोहरा समाज के रूहानी रहबर व 52वें दाईल मुतलक डॉ. सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन आका मौला (त.उ.श.) आज इंदौर की सरजमीं पर जलवा अफरोज हैं। इसके पूर्व आप 2 सितंबर 1986 को इंदौर में मोहर्रम की नौ दिनी वाअज फरमाने के लिए तशरीफ ला चुके हैं। 16साल बाद पुनः वह खुशनसीबी इंदौर के साथ-साथ पूरे मध्यप्रदेश के हिस्से में आई है, जब आप सैफीनगर में नवनिर्मित मस्जिद का वक्फ (इफ्तेताह) फरमाने तथा मजलिस-ए-इमाम हुसैन (अ.स.) के तहत मोहर्रम की नौ दिनी वाअज (15 से 23 मार्च) सैफीनगर स्थित मस्जिद में फरमाने इंदौरमें जलवा अफरोज हैं। समाज की लंबे अरसे की मुराद पूरी होने की यह मुर्सरत भरी व खुशनसीबी भरी घड़ी है।
सैयदना साहब (त.उ.श.) के रूहानी साए में दाऊदी बोहरा समाज चमनदार गुलशन में एक फूल की मानिंद शगुफ्ता है। वतन के प्रति वफादारी की सैयदना साहब की कौम को हिदायतों का नतीजा है कि यह समाज मुल्क की तरक्की, मोहब्बत व अमन में एक अहम रोल अदा कर रहा है व देश की मुख्यधारा से जुड़ा है।
फातेमी दावत को यमन से हिन्दुस्तान नकल करने के पीछे मकसद व हिन्दुस्तान की रवादारी की झलक के साथ, समाज की हिन्दुस्तान के प्रति सोच का इजहार सैयदना साहब के भाई शहजादा डॉ. यूसुफ भाई साहब नजमुद्दीन सा.
(अमीरुल जामेआ तुससैफिया) की इंदौर में 1986 में सैयदना साहब के तशरीफ लाने के समय दी गई तकरीर में मिलता है। आपने तब 1 सितंबर 1986 में इंदौर विमानतल पर सैयदना साहब के इस्तेकबालिया कार्यक्रम में तकरीर देते हुए फरमाया था कि 'इस मुबारक साअत में मैं अल्लाह सुबहानहु का शुक्रगुजार हूँ। पहले तो मुझे यह नसीब हुआ कि मैं आज इस तकरीर में दूरदराज से पहुँचा हूँ। यहाँ जो मंजर मैं देख रहा हूँ और उस पहाड़ों का जिक्र हुआ तो जेहन में तारीख की तरफ रूजू हुआ और 400 वर्ष पहले की तारीख जेहन में आई। जब हमारे बुजुर्ग हमारे पेशवाओं ने यह फैसला किया कि यमन से फातेमी दावत को हिन्दुस्तान नकल किया जाए और हिन्दुस्तान को अपनी दावत के लिए मरकज करार किया जाए।
मैं यह सोच रहा था कि यमन की पहाड़ी कुछ यहाँ की पहाड़ी से ज्यादा बुलंद है। शायद यह खुशगवार फ.जा से हमदान की मौसम कुछ ज्यादा बेहतर हो, लेकिन 400 बरस पहले यह फैसला क्यूँ किया गया जो इदारा अरबी जुबान में और मुकम्मल अरबी जुबान पर उसका ऐतमाद हो उस इदारे को नान अरबी जमीन में मरकजी तौर पर कायम करना एक बहुत बड़ी मुश्किल बात थी। तो फैसला क्यूँ किया गया। आज एक मजहबी तकरीब के लिए मजहबी पेशवा अपनी जमाअत को खिताब करने के लिए इंदौर तशरीफ लाए। उनका इस्तेकबाल करने के लिए मरकजी इदारे के नाइब सदर दिल्ली से उठकर इंदौर हाजिर हुए हैं।
वोजोरा आए हैं। मेयर आए हैं। मालूम होता है कि 400 बरस का फैसला इसलिए था कि इस सरजमीन पे एक रवादारी है। इंसानों की बिरादरी है। इस सरजमीन में तमाम मजहब पनप सकते हैं। चुनांचे 400 बरस की तारीख में कोई तब्दीली इस मामले में नहीं देखी है और अल्लाह ने यह चाहा तो हमेशा यही हाल मौजूद रहेगा।'
आज यह सच्चाई सूरज की तरह चमकती रोशन है कि डॉ. सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन साहब (त.उ.श.) की रूहानी रहबरी में समाज शिक्षित, शांतिप्रिय, नेकअमली, खुलुस अमल, वतन से वफादारी व हर एक मजहब मिल्लत से भाईचारा व सच्चाई के रास्तों पर चल रहा है। अपनी व्यापारिक क्षमताव दक्षता, अद्भुत संगठन शक्ति से यह समाज विश्व में अपनी खास पहचान रखता है। विश्व के जिस शहर-कस्बे में समाज के सदस्य निवास करते हैं, वहाँ पर समाज की शैक्षणिक संस्थाएँ हैं।
डॉ. सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन साहब का दौर तवारीख के पन्नां पर स्वर्ण हरफों की दास्तानों का दौर है। हर मंजिल पर शमाए हिदायतों के पहलू रोशन हैं। सैयदना साहब की शरीयतें इस्लाम की रोशनी में नूरानी हिदायतों से शरीयत की पाबंदी की निरंतर प्रेरणा समाज को मिलती है। फातमी दावत में हर दाइयूल मुतलक ने मोहर्रम माह के पहले नौ दिनों में इमाम हुसैन (अ.स.) की याद में मजलिसों का एहतमाम कर दाऊदी बोहरा कौम के लोगों को जमा किया, मकसद यह था कि इमाम हुसैन की शहादत के मकसद व अहमियत को बाजेह किया जाए।
साथ ही साथ लोगों को इस्लामी उसूलों पर अमल करने के लिए तैयार किया जाए और उन्हें शरीयत की पाबंदी के लिए आमादा किया जाए, जिससे वे नेक मोमिन बन सकें। खुदा से दुआ है कि डॉ. सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन मौला की उम्र शरीफ कयामत तक दराज करें- आमीन।