Ajivak sampraday in hindi: ईसवी से 600 साल पहले बौद्ध काल ऐसा समय था जबकि हर कोई ज्ञान प्राप्त करना चाहता था। इस काल में कई महात्मा और बुद्ध हुए थे। एक और जहां महावीर स्वामी तो दूसरी ओर महात्मा बुद्ध थे। इसी दौरान मक्खलि गोशाल नामक एक धर्मगुरु हुए जिन्होंने आजीविक या आजीवक नामक संप्रदाय की स्थापना की थी।
मक्खाली गोशाला : आजीविक संप्रदाय का साहित्य उपलब्ध नहीं है, किंतु बौद्ध और जैन साहित्य तथा शिलालेखों के आधार पर ही इस संप्रदाय का इतिहास जाना जा सकता है। बुद्ध और महावीर के प्रबल विरोधियों के रूप में आजीविकों के गौशाला मस्करी पुत्र (जिसे गोसाला मक्खलिपुत्त भी कहा जाता है) का उल्लेख जैन-बौद्ध-शास्त्रों में मिलता है। जैन धर्म के कई ग्रंथों के अनुसार यह दावा है कि मक्खली गौशाला, महावीर के ही शिष्य थे। किसी बात पर उनका महावीर से मतभेद के कारण अलग होकर एक नए संप्रदाय की नींव रखी।
यह भी कहते हैं कि गौशाला से पहले भी यह संप्रदाय भारत में प्रचलन में था और गौशाला खुद को इस संप्रदाय का चौबीसवें तीर्थकर कहते थे। गौशाला या गोसाला से पहले भी आजीवकों का उल्लेख मिलता है। यह भी माना जाता है कि यह संप्रदाय महावीर स्वामी के भी सैकड़ों साल पूर्व प्रचलन में था। यह श्रमण धर्म की ही एक शाखा थीं।
कई दस्तावेजों से पता लगता है कि उस दौर में आजीवक को मानने वालों की संख्या जैन अनुयायियों से भी ज्यादा थी। उस वक्त उन्होंने अयोध्या के करीब अपना एक अलग शहर बसाया था जिसे सावत्ती कहा जाता था। अब इसे श्रावस्ती कहते हैं।
जैन और बौद्ध ग्रंथों, शिलालेखों और अन्य आधारों से यह सिद्ध है कि यह संप्रदाय या धर्म पहले प्रतिष्ठित और समादृत था। परंतु मध्यकाल में इस संप्रदाय ने अपना अस्तित्व खो दिया। सम्राट अशोक और उनके पौत्र दशरथ ने बराबर बराबर की पहाड़ियों मे अनेक गुफाएं बनवा कर उन्हें आजीवकों को समर्पित कर दिया था।
आजीवक कैसे थे?
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इस संप्रदाय के अनुयायी या भिक्षु हाथ में डंडा लेकर चलते थे। नग्न रहते और परिव्राजकों की तरह घूमते थे। भिक्षा चर्या द्वारा जीविका चलाते थे।
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आजीवक बड़ी कठोर तपस्या करते थे। कीलों पर लेटना, आग से गुजरना, भीषण मौसम का सामना करना, बड़े मिट्टी के बर्तनों में बंद हो जाना आदि।
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आजीवक के बीच कोई जातिगत भेदभाव नहीं था। इसलिये हर तरह के लोग इस संप्रदाय के अनुयायी बने।
आजीवकों का सिद्धांत क्या था?
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ईश्वर या कर्म में जैसा कुछ नहीं है। जो कुछ है नियतिवाद है। पुरुषार्थ, पराक्रम वीर्य से नहीं, किंतु नियति से ही जीव की शुद्धि या अशुद्धि होती है।
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संसार चक्र नियत है, वह अपने क्रम में ही पूरा होकर मुक्ति लाभ करता है।
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स्वर्ग-नर्क या पाप-पुण्य जैसी कोई चीज नहीं होती। इस संसार की हर चीज भाग्य या नियति द्वारा पूर्व निर्धारित होती है।
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घटनाएं स्वत: घटती हैं, उनका न कोई कारण होता है और न ही कोई पूर्व निर्धारण। उनके क्लेश व शुद्धि की कोई जरूरत नहीं है।
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संपूर्ण जगत परवर और नियति के आधीन है। संसार में सुख दुख बराबर है। घटना-बढ़ना, उठना-गिरना, उत्कर्ष-अपकर्ष आदि कुछ नहीं होता। यह सब केवल एक भ्रम है।
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जैसे सूत की गेंद ऊपर फेंकने पर नीचे गिरती है और अंत में वह शांत हो जाती है, इसी तरह ज्ञानी और मूर्ख सांसारिक कर्मो से गुजरते हुए अपने दुखों का अंत करते हैं।
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हर इंसान की आत्मा धागे की एक गेंद की तरह है, जो लगातार सुलझती जा रही है। जीवन और मृत्यु के प्रत्येक चक्र का अनुभव करना ही होगा तब तक जब तक की आत्मा रूपी धागे का गोला पूरी तरह खुल न जाए। पूरी तरह खुलने पर उसकी यात्रा समाप्त हो जाएगी। इस तरह आत्मा मुक्त हो जाएगी।
क्यों मिट गया यह संप्रदाय?
- जैन और बौद्ध धर्म में इन लोगों को नीच और खराब जीवन दर्शन माना था। महावीर ने भी इसकी आलोचना की थी। गौतम बुद्ध ने भी इसे सबसे खराब दर्शन माना था।
- सम्राट अशोक के जीवन पर लिखे ग्रंथ 'अशोक अवदनम' के अनुसार पुण्यवर्धन नाम के नगर में एक आजीवक भिक्षु गौतम बुद्ध का एक चित्र लिए टहल रहा था। जिसमें गौतम बुद्ध को किसी के कदमों में गिरता दिखाया गया था। जब अशोक को इसकी खबर मिली तो उन्होंने पुण्यवर्धन के सारे आजीवकों को मारने का आदेश दे दिया। कहते हैं कि इस घटना में 18 हजार से ज्यादा आजीवक मारे गए। इसके बाद आजीवकों का पतन होना शुरू हुआ। कोई भी राजा या प्रजा इन्हें शरण नहीं देता था। बच गई आजीवक दक्षिण भारत चले गए थे। खासकर कर्नाटक और तमिलनाडु में इनकी मौजूदगी के सबूत मिलते हैं।