भारत में यहूदियों की मौजूदगी और उनके जीवन की कहानी कहते निबंधों के संग्रह 'जियूज़ एंड द इंडियन आर्ट प्रोजेक्ट' और 'वेस्टर्न जियूज़ इन इंडिया' का संपादन डॉक्टर कीनेथ रॉबिन्स और रब्बी मारविन तोकाएर ने किया है। डॉक्टर कीनेथ रॉबिन्स ने कहा कि उन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों में यहूदियों के योगदान को पहचानने का लक्ष्य रखा था। कीनेथ पेशे से मनोवैज्ञानिक हैं।
उन्होंने कहा कि मेरा वास्तविक लक्ष्य भारत में रहने वाले यहूदियों, विभिन्न समुदायों की संस्कृतियों के बारे में किताब लाने का था, मगर ऐसा कई बार किया जा चुका है। लेकिन मैं उन यहूदी व्यक्तियों को ढूंढता रहा जिन्होंने भारत के लिए योगदान किए हैं।
रॉबिन्स कहते हैं कि मैंने पाया कि यहूदी बहुत पहले से भारत में आते रहे हैं। वे सब एक ही समय पर नहीं आए और न ही बड़ी संख्या में आए। इसके साथ ही रॉबिन्स उन विभिन्न यहूदियों के नाम लेते हैं जिनके बारे में उन्हें ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं। वे उनकी कहानियां कहते हुए उन्हें एक शख्सियत के रूप में देखते हैं। इन लोगों में एक जिक्र 'द मदर' (मीरा अल्फासा) का है, जो श्रीअरबिंद की आध्यात्मिक सहयोगी थीं।
'ज्यूज एंड द इंडियन आर्ट प्रोजेक्ट' रॉबिन्स का ऐसा प्रोजेक्ट है जिसमें भारतीय कला परिदृश्य में यहूदियों को एक महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य अंगों के रूप में स्थापित किया गया है। लेखक ने कहा कि यदि आप भारतीय कला के किसी क्षेत्र को देखें तो पाएंगे कि यहूदी लोग उससे जुड़े हैं।
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आज से 2,990 वर्ष पूर्व अर्थात 973 ईसा पूर्व में यहूदियों ने केरल के मालाबार तट पर प्रवेश किया। यहूदियों के पैगंबर थे मूसा, लेकिन उस दौर में उनका प्रमुख राजा था सोलोमन, जिसे सुलेमान भी कहते हैं।
नरेश सोलोमन का व्यापारी बेड़ा मसालों और प्रसिद्ध खजाने के लिए आया। आतिथ्य प्रिय हिन्दू राजा ने यहूदी नेता जोसेफ रब्बन को उपाधि और जागीर प्रदान की। यहूदी कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य में बस गए। विद्वानों के अनुसार 586 ईसा पूर्व में जूडिया की बेबीलोन विजय के तत्काल पश्चात कुछ यहूदी सर्वप्रथम क्रेंगनोर में बसे।
अब्राहम और मूसा के बाद दाऊद और उसके बेटे सुलेमान को यहूदी धर्म में अधिक आदरणीय माना जाता है। सुलेमान के समय दूसरे देशों के साथ इजरायल के व्यापार में खूब उन्नति हुई। सुलेमान का यदूदि जाति के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 37 वर्ष के योग्य शासन के बाद सन 937 ई.पू. में सुलेमान की मृत्यु हुई।
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माना जाता है कि ईसा से लगभग 3,000 वर्ष पूर्व अर्थात महाभारत के युद्ध के बाद अस्तित्व में आए यहूदी धर्म के 10 कबीलों में से एक कबीला कश्मीर में आकर रहने लगा और धीरे-धीरे वह हिन्दू तथा बौद्ध संस्कृति में घुल-मिल गया। आज भी उस कबीले के वंशज हैं लेकिन अब वे मुसलमान बन गए हैं। हालांकि इस पर शोध किए जाने की आवश्यकता है।
यहूदी मिस्र के बहुदेववादी इजिप्ट धर्म के राजा फराओ के शासन के अधिन रहते थे। बाद में मूसा के नेतृत्व में वे इजरायल आ गए। ईसा के 1100 साल पहले जैकब की 12 संतानों के आधार पर अलग-अलग यहूदी कबीले बने थे, जो दो गुटों में बँट गए। पहला 10 कबीलों का बना था वह इजरायल कहलाया और दूसरा जो बाकी के दो कबीलों से बना था वह जुडाया कहलाया। जुडाया पर बेबीलन का अधिकार हो गया। बाद में ई.पू. सन् 800 के आसपास यह असीरिया के अधीन चला गया। असीरिया प्राचीन मेसोपोटामिया का एक साम्राज्य था, जो यह दजला नदी के उपरी हिस्से में बसा था। 10 कबीलों का क्या हुआ पता नहीं चला।
फारस के हखामनी शासकों ने असीरियाइयों को ई.पू. 530 तक हरा दिया तो यह क्षेत्र फारसी शासन में आ गया। यूनानी विजेता सिकन्दर ने जब दारा तृतीय को ई.पू. 330 में हराया तो यहूदी लोग ग्रीक शासन में आ गए। सिकन्दर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस के साम्राज्य और उसके बाद रोमन साम्राज्य के अधीन रहने के बाद ईसाईयत का उदय हुआ। इसके बाद यहूदियों को यातनाएँ दी जान लगी।
7वीं सदी में इस्लाम के आगाज के बाद यहूदियों की मुश्किलें और बड़ गई। तुर्क और मामलुक शासन के समय यहूदियों को इजराइल से पलायन करना पड़ा। अंतत: यहूदियों के हाथ से अपना राष्ट्र जाता रहा। मई 1948 में इजराइल को फिर से यहूदियों का स्वतंत्र राष्ट्र बनाया गया। दुनिया भर में इधर-उधर बिखरे यहूदी आकर इजरायली क्षेत्रों में बसने लगे। वर्तमान में अरबों और फिलिस्तिनियों के साथ कई युद्धों में उलझा हुआ है एकमात्र यहूदी राष्ट्र इजरायल।
हजरत मूसा : मूसा का जन्म ईसा पूर्व 1392 को मिस्र में हुआ था। उस काल में मिस्र में फेरो का शासन था। उनका देहावसान 1272 ईसा पूर्व हुआ। ह. इब्राहीम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम 'पैगंबर मूसा' का है। ह. मूसा ने यहूदी धर्म को एक नई व्यवस्था और स्थान दिया। उन्होंने मिस्र से अपने लोगों को ले जाकर इसराइल में बसाया। यहूदियों के कुल 12 कबीले थे जिनको बनी इसराइली कहा जाता था। माना जाता है कि इन 12 कबीलों में से एक कबीला उनका खो गया था। शोधानुसार वही कबीला कश्मीर में आकर बस गया था।
प्राचीन मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक तथा सीरिया) में सामी मूल की विभिन्न भाषाएं बोलने वाले अक्कादी, कैनानी, आमोरी, असुरी आदि कई खानाबदोश कबीले रहा करते थे। इन्हीं में से एक कबीले का नाम हिब्रू था। वे यहोवा को अपना ईश्वर और इब्राहीम को आदि पितामह मानते थे। उनकी मान्यता थी कि यहोवा ने अब्राहम और उनके वंशजों के रहने के लिए इसराइल देश नियत किया है।
इब्राहीम मध्य में उत्तरी इराक से कानान चले गए थे। वहां से इब्राहीम के खानाबदोश वंशज और उनके पुत्र इसाक और इस्माइल, जो तब तक 12 यहूदी कबीले बन चुके थे, मिस्र चले गए। मिस्र में उन्हें कई पीढ़ियों तक गुलाम बनकर रहना पड़ा। मिस्र में वे मिस्रियों के साथ रहते थे, लेकिन दोनों ही कौमों में तनाव बढ़ने लगा तब मिस्री फराओं के अत्याचारों से तंग आकर हिब्रू कबीले के लोग लगभग ई.पू. 13वीं शताब्दी में वे मूसा के नेतृत्व में पुन: अपने देश इसराइली कानान लौट आए।
लौटने की इस यात्रा को यहूदी इतिहास में 'निष्क्रमण' कहा जाता है। इसराइल के मार्ग में सिनाई पर्वत पर मूसा को ईश्वर का संदेश मिला कि यहोवा ही एकमात्र ईश्वर है अत: उसकी आज्ञा का पालन करें, उसके प्रति श्रद्धा रखें और 10 धर्मसूत्रों का पालन करें। मूसा ने यह संदेश हिब्रू कबीले के लोगों को सुनाया। तत्पश्चात अन्य सभी देवी-देवताओं को हटाकर सिर्फ यहोवा की आराधना की जाने लगी। इस प्रकार यहोवा की आराधना करने वाले यहूदी और उनका धर्म यहूदत कहलाया।