जापान के शिंतो धर्म की ज्यादातर बातें बौद्ध धर्म से ली गई थी फिर भी इस धर्म ने अपनी एक अलग पहचान कायम की थी। इस धर्म की मान्यता थी कि जापान का राज परिवार सूर्य देवी अमातिरासु ओमिकामी से उत्पन्न हुआ है। उक्त देवी शक्ति का वास नदियों, पहाड़ों, चट्टानों, वृक्षों कुछ पशुओं तथा विशेषत: सूर्य और चंद्रमा आदि किसी में भी हो सकता है।इसीलिए कालांतर में प्राकृतिक शक्तियों, महान व्यक्तियों, पूर्वजों तथा सम्राटों की भी उपासना की जाती थी। किंतु बौद्ध धर्म के प्रभाव से सारी रूढि़याँ छूट गई लेकिन 1868-1912 में शिंतो धर्म ने बौद्ध विचारों से स्वतंत्र होकर अपने धार्मिक मूल्यों की पुन: व्याख्या और स्थापना कर इसे जापान का 'राज धर्म' बना दिया गया।
शिंतों धर्म में नीति और नियमों का कोई उल्लेख नहीं मिलता और ना ही इसके विधि-विधान या क्रियाकांड के कोई ग्रंथ है। इसकी आवश्यकता इसलिए महसूस नहीं हुई क्योंकि उनके विचार से प्रत्येक जापानी नीति और अनुशासन के मार्ग पर चलता ही है। जापानी मानते थे कि उनका प्रत्येक कार्य या नियम ईश्वर प्रदत्य है।
शिंतो तीर्थ स्थल व मंदिर भव्य होते हैं, क्योंकि मान्यता है कि इन भव्य मंदिरों में देवता वास करते है इसीलिए लोग प्रवेश द्वार के माध्यम से अपनी प्रार्थनाएँ करते थे। शिंतो तीर्थ स्थलों में सबसे महत्वपूर्ण 'आइस' में स्थित 'सूर्य देवी' का तीर्थस्थल था, जहाँ जून और दिसम्बर में एक बार राजकीय समारोह होता है।
शिंतो धर्मावलम्बियों की पूजा-पद्धति में प्रार्थनाएँ करना, तालियाँ बजाना शुद्धिकरण और देवताओं की श्रद्धा में कुछ अर्पण करना सम्मिलित है। पुरोहित प्रार्थनाएँ पढ़ते हैं, कामनाएँ करते हैं तथा पूर्वजों की स्मृति में भेटें चढ़ाई जाती है। संगीत, नृत्य के आयोजन के साथ ही धार्मिक उत्सवों वाले दिनों में जुलूस निकाले जाते हैं। इति।
- अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'