सनातन धर्म के अनुसार कैसे करें श्राद्ध
सनातन धर्म की पौराणिक मान्यता के अनुसार श्राद्ध करने के लिए एक पूरा पखवाड़ा ही निश्चित कर दिया गया है। सभी तिथियां इन सोलह दिनों में आ जाती हैं। इसीलिए कोई भी पूर्वज जिस तिथि को इस लोक को त्याग कर परलोक गया हो, उसी तिथि को इस पक्ष में उनका श्राद्ध किया जाना ही सही माना जाता है। खास तौर पर स्त्रियों के लिए नवमी तिथि विशेष मानी गई है जिसे मातृ नवमी भी कहते हैं। जिस तिथि में अपने माता-पिता, दादा-दादी की मृत्यु हुई हो उसी तिथि में ही श्राद्ध करने की परंपरा है, लेकिन पिता के जीवित रहते अगर माता की मृत्यु हो गई हो तो उनका श्राद्ध नवमीं तिथि को करना चाहिए, मृत्यु तिथि को नहीं। श्राद्ध पक्ष सोलह दिन तक तक रहता है। जिस तिथि में जिस पूर्वज का स्वर्गवास हुआ हो उसी तिथि को उनका श्राद्ध किया जाता है जिनकी परलोक गमन तिथि ज्ञान न हो, उन सबका श्राद्ध अमावस्या को किया जाता है। वास्तव में पितरों का ऋण चुकाना एक जीवन में तो संभव ही नहीं, अतः उनके द्वारा संसार त्याग कर चले जाने के उपरांत भी श्राद्ध करते रहने से उनका ऋण चुकाने की परंपरा है। श्राद्ध से जो भी कुछ देने का हम संकल्प लेते हैं वह सब कुछ उन पूर्वजों को अवश्य प्राप्त होता है। जिनके पिता संन्यासी हो गए हो उनका श्राद्घ द्वादशी तिथि यानी सन्यासी श्राद्ध के दिन किया जाना चाहिए।
परिवार के किसी भी सदस्य की आकस्मिक मृत्यु जैसे पानी में डूबने से अथवा शस्त्रों के प्रहार या विषपान से हुई हो ऐसे व्यक्तियों का श्राद्ध चतुर्दशी की तिथि में किया जाना चाहिए। वैसे तो सभी अमावस्या तर्पण के लिए श्रेष्ठ हैं परंतु पितृ पक्ष की अमावस्या को पितृ तर्पण तथा श्राद्ध के लिए सर्वाधिक फलदायी माना जाता है। इसे पितृविसर्जिनी अमावस्या कहा जाता है। ऐसा कहा जाता हैं कि सभी पितर अमावस्या के दिन अपने वंशज के द्वार पर पिंड प्राप्ति की आशा में आते हैं। यदि उन्हें सम्मानपूर्वक पिंडदान तथा तर्पण मिलता है तो वे तृप्त गृहस्थ वंशज को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। यदि उन्हें कुछ नहीं मिलता और वे निराश होते हैं तो वे शाप देकर पुन: लौट जाते हैं। अतः परिवार की सुख-समृद्धि एवं उनके कल्याण हेतु पितरों को श्रद्धापूर्वक तर्पण अवश्य करना चाहिए। अत: जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा के साथ अपने पितरों का श्राद्ध करता है, वे पितृदोष एवं पितृऋण से मुक्त होकर ब्रह्म लोक को प्राप्त करते है।