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सुरों की चाँदनी में पुण्य स्नान

पंडित भीमसेन जोशी की एक संगीत सभा की याद

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, सोमवार, 24 जनवरी 2011 (10:40 IST)
रवींद्र व्यास
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वह इंदौर की एक सर्द रात थी जब वैष्णव विद्यालय के खुले प्रांगण में रसिकजन पंडित भीमसेन जोशी का गायन सुनने के लिए उनका बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। उस वक्त वे बीमार थे। विद्यालय के एक छोटे से कमरे में वे व्हील चेयर पर बैठे थे। दुग्धधवल कपड़ों में। सफेद धोती-कुरता, सफेद मोजे। कंधे पर दुधिया शॉल।

मैं उनसे एक छोटा-सा इंटरव्यू करना चाहता था। उनके करीबी पूरी विनम्रता से इसके लिए इंकार कर रहे थे। मुझे लग रहा था पता नहीं पंडित से इंटरव्यू लेने का मौका कब मिले?

तब वे लगातार खाँस रहे थे। शायद उनके फेफड़ों में कफ था। गले में खराश थी।

लेकिन उनमें अथक जिजीविषा थी, गाने की। वे वहाँ थे, गाने के लिए, अपनी दमदार गायकी से रसिकजन को मंत्रमुग्ध करने के लिए। वे मंच पर आए तो प्रांगण तालियों से गूँज उठा।

उन्होंने अभिवादन स्वीकार किया और फिर आँख बंद कर खो गए। मैं महसूस कर रहा था कि वे उस झरने के स्रोत तक पहुँच रहे है जिस पर समय की झाड़-झंखाड़ थी। उस झरने का स्रोत उनके ही भीतर कहीं गहरे बसा था।

उन्होंने गाना शुरू किया। और शाम हो चुकी थी। जैसे शाम के पंछी घर लौटते हैं, धीरे-धीरे पंडितजी के गले में सुर लौट रहे थे। उनका कंठ सुरों का स्थायी घर था जहाँ वे निर्भय रहते हुए साँस ले सकते थे, अपना निर्दोष और उजला जीवन जी सकते थे।
पंडितजी ने शायद राग यमन कल्याण से शुरुआत की थी। उन्होंने आलाप लिया और शाम की नीरवता और घनी हो गई। उस शाम में उनके आलाप का उजाला फैल रहा था। वे गा रहे थे।

और जैसे-जैसे वे अपनी कल्पनाशीलता से राग का स्थापत्य खड़ा करते जा रहे थे, वैसे-वैसे वह उजाला ज्यादा फैलता जाता था। यह सुरों का ही जादू है कि वह अपने उजाले के साथ हमारे भीतर उतरता है और हमारे अँधेरे को पोंछते हुए हमें एक फरिश्ते में बदलने की ताकत रखता है। हम अपने कितने ही अँधेरों से लिपटे पड़े होते हैं। आकांक्षा, महत्वाकांक्षा, छोटे-छोटे स्वार्थ, द्वेष और ईर्ष्या। कोई गायक होता है जो अपने सुरों को ऐसे लगाता है कि हमारे सारे अँधेरे धुलकर साफ हो जाते हैं। हम एक ऐसी दुनिया में होते हैं, जहाँ सिर्फ उजलापन होता है।

पंडितजी का वही उजलापन हमारे भीतर उतर रहा था। और हम उनके उजलेपन में बैठे उनका गाना सुन रहे थे, इससे बेखबर कि वह हमारे अँधेरों को पोंछ रहा है।

यह पंडितजी की जिजीविषा ही थी कि बीमार होने के बाद भी वे अपनी खनकदार गायकी में अपनी पूरी गरिमा के साथ उपस्थित थे। दूसरों को अपनी उपस्थिति के बोध से मुक्त करते हुए। जब आप कोई राग सुनते हैं तो आप उसके जादू में यह भूल जाते हैं कि आप कौन हैं? कहाँ हैं?

उस दिन ऐसा ही हुआ।

और वे गा रहे थे। उनके गायकी में उनके जीवन की जिजीविषा का ही आलोक था। उसमें जीवन रस था। वह रस जो सबको सराबोर कर रहा था।

रात धीरे-धीरे गहरा रही थी और चाँदनी खिली-खिली जा रही थी। यह सब उनके सुरों का प्रताप था। मुझे वहाँ उस रात पहली बार यह लगा कि पंडित भीमसेन जोशी हमारे लिए नहीं गा रहे े। वे अपने लिए भी नहीं गा रहे े। वे तो ईश्वर के लिए ही गा रहे थे। क्योंकि उस गाने की पुकार में ईश्वर के प्रति समर्पण भाव छिपा था। पूरी तरह से अपने को मिटाकर ईश्वर के प्रति समर्पण भाव।

कहते हैं अपने को मिटाकर ही ईश्वर को पाया जा सकता है। उस दिन पंडितजी ईश्वर को ही पा रहे थे। और ईश्वर उनके लिए चाँदनी बरसा रहा था।

उस रात हम सब सौभाग्यशाली थे कि उनके सुरों की चाँदनी में हम स्नान कर रहे थे। यह पुण्य स्नान था। हमने उस दिन पुण्य पाया। आज वे समूची चाँदनी के साथ हमसे बिदा हो रहे हैं और संगीत के सारे मधुर स्वर स्तब्ध हैं। अश्रुपूरित विनम्र आदरांजलि।

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