मुशर्रफ के इस्तीफे के बाद असल में इम्तिहान अब शुरू हुआ है। सबसे अहम सवाल तो यही है कि क्या पाकिस्तान एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के भँवर में फँसेगा? सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार चला रहे आसिफ जरदारी और नवाज शरीफ की पार्टियाँ और फौजी शासन के बीच कैसा तालमेल रहेगा?
जरदारी और शरीफ की पार्टियों ने जब सत्ता के लिए गठबंधन किया था, तभी यह साफ हो गया था कि आने वाले दिन मुशर्रफ के लिए मुश्किल भरे होंगे। मुशर्रफ को पद से जो इस्तीफा देना पड़ा उसके लिए कई कारण भी हैं। मसलन, मुशर्रफ के लगभग नौ साल के शासन में पाकिस्तान में राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर जो कुछ घटा, उसे मुल्क की जनता ने भी पसंद नहीं किया।
मुशर्रफ की तमाम कोशिशों के बावजूद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) और पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज का आम चुनाव में अधिक सीटें जीतना इसका संकेत था कि अवाम मुशर्रफ के शासन से खुश नहीं है। आर्थिक कुप्रबंधन, महँगाई, बेरोजगारी और प्रमुख लोकतांत्रिक संस्थाओं जैसे न्यायपालिका के अधिकारों पर कुठाराघात किया गया, उसे भी मुल्क की जनता ने पसंद नहीं किया।
पाकिस्तानियों के एक हिस्से में ब्लूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत पर सैन्य अभियान और आत्मघाती दस्तों द्वारा बमबारी के चलते देश में असुरक्षा की भावना बढ़ गई थी। मुशर्रफ को राजनीतिक दबाव के चलते पद से इस्तीफा देना पड़ा।
अब पाकिस्तान और मुल्क में सत्ताधारी गठबंधन के सामने वही चुनौतियाँ हैं जो मुशर्रफ के सामने थीं। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती मुल्क में लोकतंत्र को कायम रखने की है।
(लेखक पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग के निदेशक हैं)