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4 कुंभ पर्व धरती पर और 8 देवलोक में मनाते हैं, जानिए 12 कुंभ पर्वों का रहस्य

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* बारह कुंभ पर्वों का अध्ययन-विवेचन
 
- डॉ. बिन्दूजी महाराज 'बिन्दू' 
 
हमारे धर्मशास्त्रों के मतानुसार कुंभ 12 कल्पित हैं जिनमें से 4 भारतवर्ष में प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) में होते हैं तथा शेष 8 को देवलोक में माना जाता है। भारत के चारों स्थानों पर बृहस्पति के विभिन्न राशियों में संक्रमण और उसमें उपस्थिति की स्थिति अधिक महत्वपूर्ण है, जैसे प्रयाग में बृहस्पति का वृषस्थ और सूर्य का मकरस्थ होना कुंभ पर्व का योग लाता है, तो उज्जैन में बृहस्पति का सिंहस्थ एवं चंद्र-सूर्य का मेषस्थ होना कुंभ पर्व का सुयोग बनाता है।
 
 
हरिद्वार में कुंभ राशि के बृहस्पति में जब मेष का सूर्य आता है, तो कुंभ योग बनता है। त्र्यम्बक (नासिक) में बृहस्पति तो सिंहस्थ ही रहते हैं, पर सूर्य और चंद्रमा भी सिंहस्थ हो जाते हैं। यही कारण है कि उज्जैन और त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) के कुंभ पर्वों को 'कुंभ' न कहकर 'सिंहस्‍थ' नाम से अधिक जाना जाता है। इस दृष्टि से देखें तो सूर्य और चंद्र के साथ बृहस्पति को ही सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। बृहस्पति का विभिन्न राशियों में संक्रमण का काल मांगलिक माना गया है और बृहस्पति की यही मांगलिकता (कल्याणकारिता) ही कुंभ पर्वों का विशेष कारण है।

 
अब सवाल यह उठता है कि बृहस्पति तो कुंभ वृषभ और सिंह राशियों के अलावा भी अन्य राशियों में भी संक्रमित और उपस्थित होते हैं और हर राशि में करीब-करीब 12 वर्ष बाद ही आते हैं। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि वे इन चारों स्थानों के अतिरिक्त और कौन से अन्य स्थान हैं, जहां बृहस्पति के अन्य राशियों में स्थिर होने पर मंगल पर्व (कुंभ पर्व) का सुयोग होता है। हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार 12 कुंभ पर्व कल्पित हैं जिसमें से 4 प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) में होते हैं, शेष अज्ञात हैं? अर्थात धर्मग्रंथों के अनुसार देवलोक में होते हैं। किंतु यह आज के वैज्ञानिक युग में एक महान खोज का विषय है, क्योंकि कुंभ पर्व या सिंहस्‍थ हेतु बृहस्पति का योग ही महत्वपूर्ण माना जाता है और बृहस्पति तो कुंभ, मेष, वृषभ और सिंह राशियों के अतिरिक्त अन्य शेष राशियों में भी संक्रमित और उपस्थित होते हैं और करीब-करीब हर राशि में लगभग 12 वर्ष बाद ही आते हैं।

अत: वैज्ञानिकों, ज्योतिर्विदों और खगोलशास्‍त्रियों को यह अवश्य खोज करनी चाहिए कि भारत के अतिरिक्त विश्व में वे कौन से अन्य स्थान हैं और कहां-कहां हैं, जहां बृहस्पति के अन्य राशियों में स्थित होने पर मंगल पर्व (कुंभ) का सुयोग उपस्थित होता है? 
 
विश्व के अन्य भागों में होने वाले मेलों, जो कि किसी-न-किसी नदी के तट पर भरते हों, उनकी खगोलीय (ग्रह स्थितियों) की विस्तृत खोजबीन तथा तुलनात्मक अध्ययन, शेष 8 अज्ञात कुंभ पर्वों की जानकारी में सहायक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि विश्व के मानचित्र में ऐसे अनेक विराट पर्व मनाए जाते हैं, जो कि किसी-न-किसी नदी, सागर आदि के तटों पर होते हैं। आवश्यकता है तो उन मेलों की गहन छानबीन के साथ अध्ययन और उपरोक्त बृहस्पति आदि ग्रहों के संयोग की तुलनात्मक अध्ययन की। यह इतिहास की एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी और हमारे भौगोलिक ज्ञान की श्रीवृद्धि भी।

 
दक्षिण भारत में पांचवां कुंभ महापर्व- जैसा कि पूर्व में मैं यह बता चुका हूं कि हमारे धर्मशास्त्रों में 12 कुंभ कल्पित हैं जिनमें से 4 कुंभ महापर्व प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) में मनाए जाते हैं और यही चारों कुंभ ही जगविख्यात हैं, शेष अज्ञात हैं और उन पर शोध की आवश्यकता है। किंतु इन 4 कुंभ पर्वों के अतिरिक्त एक पांचवां कुंभ भी हमारे शोध से सामने आया है जिसे केवल दक्षिण भारत के साधु-संत और जनता-जनार्दन ही मनाते हैं।

यह पांचवां कुंभ महापर्व तमिलनाडु में चिदम्बरम् के पास कुंभकोणम् नामक स्थान में 'महामाखम पर्व' के नाम से मनाया जाता है। 'कुंभकोणम्' का संस्कृत नाम 'कुंभघोषम्' है। यह कुंभ भी प्राय: 12 वर्षों में ही मनाया जाता है। कुंभकोणम् के महामाखम पर्व (कुंभ महापर्व) की कथा इस प्रकार है- ब्रह्माजी ने एक ऐसा कुंभ (कलश) बनाया जिसमें संचित कर रखा गया है। इस कुंभ की घोषा अर्थात नासिका किसी कारण से खंडित हो गई जिसके कारण 'अमृत' घड़े से बाहर फैल गया और वहां की भूमि अमृतमयी हो गई। यहां तक कि 5 कोस तक का भू-भाग अमृतमयी हो गया, यथा-
 
 
कुंभस्य कोणंतो यस्मिन सुधापूरं विनिस्सृतम्।
तस्मात् तत्पदं लोके कुंभकोणम्ं वदंतिहि।।
पुराणों के अनुसार अमृत और विश्व सृजन के बीजों से भरा कुंभ (कलश) जलमय प्रलय के समय कुंभकोणम् नामक स्थान में आकर ठहर गया। शिकारी के वेश में शिवजी ने तीर मारकर घड़े (कुंभ) को फोड़ दिया और इस प्रकार महामाखम सरोवर में अमृत भर गया। महामाखम के दिन गंगा, यमुना, सरस्वती, सरयू, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु, कावेरी व महानदी आदि नदियों के पावन सलिल स्रोत महामाखम सरोवर में प्रगट होते हैं तथा समस्त देवी-देवता वहां निवास करते हैं। महामाखम पर्व के समय लाखों श्रद्धालुजन यहां आकर महामाखम सरोवर और कावेरी नदी में स्नान करके दान-धर्म आदि कर्म करते हैं।

 
यहां विचारणीय बात यह है कि समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से इस महामाखम पर्व का क्या संबंध है? कुछ निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता है, किंतु इतना तो तय है कि भारत के चारों विख्यात कुंभ पर्वों का स्‍थल समुद्र तट पर नहीं है ज‍बकि कुंभ का संबंध समुद्र मंथन से बताया गया है और समुद्र से यदि कहीं अमृत की निकटता देखी जा सकती है तो वह निश्चित रूप से कुंभकोणम् है। जैसा कि कुंभकोणम् नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि कुंभ कलश को समुद्र मंथन के बाद इसी स्थान पर रखा गया था और कुंभकोणम् नाम भी स्वयं कुंभ पर्व को चरितार्थ करता हुआ प्रतीत होता है तथा कुंभ संबंधी धारणाओं का जीवंत रूप भी साकार करता है।

 
कुंभकोणम् में अनेक देवी-देवताओं के पावन मंदिर हैं जिसमें 'महामाखम सरोवर' सबसे महत्वपूर्ण है। इसी महामाखम में दक्षिण भारत के 'कुंभ का मेला' 12 वर्षों में एक बार आयोजित होता है। इसी कुंभ मेले में माघी पूर्णिमा को प्रमुख स्नान होता है। नागेश्वर, शारंगपाणि और कुंभेश्वर सबसे प्रमुख मंदिर हैं। इन सबमें सबसे महत्वपूर्ण स्थान कुंभेश्वर मंदिर का है। कुंभेश्वर मंदिर में कुंभ (कलश) के आकार का गोलाकृत शिवलिंग स्थापित है। इस शिल्प का शिवलिंग भारत के अन्य किसी मंदिर में देखने को नहीं मिलता है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि समुद्र मंथन के पश्चात निश्चित रूप से 'अमृत कलश' यहीं रखा गया होगा और यहीं से विष्णु का इशारा पाकर जयंत कलश लेकर भागे होंगे तथा उसे प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) में विश्राम के क्षणों में रखा होगा जिसकी स्मृति में कुंभ पर्व आयोजित होते हैं।

 
उत्तर भारतीय नागरिकों एवं साधु-संतों को कुंभकोणम् के कुंभ नाम की सार्थकता और शिव से कुंभ का घनिष्ठ संबंध तथा शता‍ब्दियों से इस शैव क्षेत्र में कुंभ की मान्यता, असाधारण और अकल्पनीय लग सकती है, किंतु यह कटु सत्य है कि दक्षिण भारत में प्रति 12 वर्ष में 5वां कुंभ महापर्व मनाया जाता है। इस कुंभकोणम् के महामाखम सरोवर पर भरने वाले इस विशाल मेले को (जो कि कुंभ मेलों (प्र‍चलित) की ही भांति प्रति 12 वर्ष में अमृत कलश की स्मृति में ही मनाया जाता है)। उत्तर और दक्षिण भारत की धार्मिक मान्यताओं की एकात्मकता के साथ-साथ भारत के अन्य 4 कुंभ महापर्वों की परंपरा का प्रवेश द्वार तो माना ही जा सकता है।

अभी संतों के अखाड़े एवं उत्तर भारतीय साधु-संत भले ही यहां कुंभ स्नान हेतु नहीं आते हैं अथवा इस महापर्व से अपरिचित हैं किंतु भविष्य में जब संतों के अखाड़ों और उत्तर भारतीय साधु-संतों का जमावड़ा कुंभकोणम् में भी होने लगेगा और यहां भी संतों का शाही स्नान होने लगेगा, तब इसे हमें 5वें महाकुंभ पर्व के रूप में स्वीकारना ही पड़ेगा, क्योंकि कुंभकोणम् के कुंभ महापर्व का भी अपना वैशिष्ट्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता।

 
इस प्रकार से धर्मग्रंथों में वर्णित 12 कुंभ महापर्वों में से 5 का तो पता चल ही चुका है किंतु 7 कुंभों (कुंभ महापर्वों) की व्यापक खोजबीन एवं मीमांसा अभी शेष है।

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