इलाहाबाद। कुम्भ में पौष पूर्णिमा के पावन पर्व पर श्रद्धा की डुबकी के साथ ही संयम, अहिंसा, श्रद्धा एवं कायाशोधन के लिए तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती की रेती पर कल्पवासियों ने डेरा जमा लिया।
पुराणों और धर्मशास्त्रों में कल्पवास को आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति के लिए जरूरी बताया गया है। यह मनुष्य के लिए आध्यात्म की राह का एक पड़ाव है, जिसके जरिए स्वनियंत्रण एवं आत्मशुद्धि का प्रयास किया जाता है। हर वर्ष श्रद्धालु एक महीने तक संगम गंगा तट पर अल्पाहार, स्नान, ध्यान एवं दान करके कल्पवास करते है। कल्पवास पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक किया जाता है।
वैदिक शोध एवं सांस्कृतिक प्रतिष्ठान कर्मकाण्ड प्रशिक्षण केन्द्र के आचार्य डा आत्माराम गौतम ने बताया कि तीर्थराज प्रयागराज में प्रतिवर्ष माघ महीने में विशाल मेला लगता है। इस अवसर पर लाखों श्रद्धालु यहां एक महीने तक संगम तट पर निवास करते हुए जप, तप, ध्यान, साधना, यज्ञ एवं दान आदि विविध प्रकार के धार्मिक कृत्य करते हैं। इसी को कल्पवास कहा जाता है। कल्पवास का वास्तविक अर्थ है- कायाकल्प। यह कायाकल्प शरीर और अन्तःकरण दोनों का होना चाहिए। इसी द्विविध कायाकल्प के लिए पवित्र संगम तट पर जो एक महीने का वास किया जाता है जिसे कल्पवास कहा जाता है।
प्रयागराज में कुम्भ बारहवें वर्ष पड़ता है लेकिन यहां प्रतिवर्ष माघ मास में जब सूर्य मकर राशि में रहते हैं, तब माघ मेला एवं कल्पवास का आयोजन होता है। मत्स्यपुराण के अनुसार कुम्भ में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। उन्होंने बताया कि आदिकाल से चली आ रही इस परंपरा के महत्व की चर्चा वेदों से लेकर महाभारत और रामचरितमानस में अलग-अलग नामों से मिलती है। बदलते समय के अनुरूप कल्पवास करने वालों के तौर-तरीके में कुछ बदलाव जरूर आए हैं लेकिन कल्पवास करने वालों की संख्या में कमी नहीं आई है। आज भी श्रद्धालु भयंकर सर्दी में कम से कम संसाधनों की सहायता लेकर कल्पवास करते हैं।
कल्पवास के पहले शिविर के मुहाने पर तुलसी और शालिग्राम की स्थापना और पूजा आवश्य की जाती है। कल्पवासी अपने घर के बाहर जौ का बीज अवश्य रोपित करता है। कल्पवास समाप्त होने पर तुलसी को गंगा में प्रवाहित कर देते हैं और शेष को अपने साथ ले जाते हैं। कल्पवास के दौरान कल्पवासी को जमीन पर सोना होता है। इस दौरान फलाहार या एक समय निराहार रहने का प्रावधान होता है। कल्पवास करने वाले व्यक्ति को नियम पूर्वक तीन समय गंगा में स्नान और यथासंभव अपने शिविर में भजन-कीर्तन, प्रवचन या गीता पाठ करना चाहिए।
आचार्य ने बताया कि मत्स्यपुराण में लिखा है कि कल्पवास का अर्थ संगम तट पर निवास कर वेदाध्यन और ध्यान करना। कुम्भ में कल्पवास का अत्यधिक महत्व माना गया है। इस दौरान कल्पवास करने वाले को सदाचारी, शांत चित्त वाला और जितेन्द्रीय होना चाहिए। कल्पवासी को तट पर रहते हुए नित्यप्रति तप, होम और दान करना चाहिए।
समय के साथ कल्पवास के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव भी आए हैं। बुजुर्गों के साथ कल्पवास में मदद करते-करते कई युवा खुद भी कल्पवास करने लगे हैं। कई विदेशी भी अपने भारतीय गुरुओं के सानिध्य में कल्पवास करने यहां आते हैं। पहले कल्पवास करने आने वाले गंगा किनारे घास-फूस की कुटिया में रहकर भगवान का भजन, कीर्तन, हवन आदि करते थे, लेकिन समयानुसार अब कल्पवासी टेंट में रहकर अपना कल्पवास पूरा करते हैं।
उन्होंने बताया कि पौष कल्पवास के लिए वैसे तो उम्र की कोई बाध्यता नहीं है, लेकिन माना जाता है कि संसारी मोह-माया से मुक्त और जिम्मेदारियों को पूरा कर चुके व्यक्ति को ही कल्पवास करना चाहिए क्योंकि जिम्मेदारियों से बंधे व्यक्ति के लिए आत्मनियंत्रण कठिन माना जाता है।
कुम्भ, अर्द्धकुम्भ और माघ मेला एक ऐसा धार्मिक आयोजन है, जिसकी पूरी दुनिया में कोई मिसाल नहीं मिलती। इसके लिए किसी प्रकार का न तो प्रचार किया जाता है और न ही इसमें आने के लिए लोगों से मिन्नतें की जाती हैं। तिथियों के पंचांग की एक तारीख ही करोड़ों लोगों को कुम्भ में आने के निमंत्रण का कार्य करती है।
आचार्य ने बताया कि प्रयागराज में जब बस्ती नहीं थी, तब संगम के आस-पास घोर जंगल था। जंगल में अनेक ऋषि-मुनि जप तप करते थे। उन लोगों ने ही गृहस्थों को अपने सान्निध्य में ज्ञानार्जन एवं पुण्यार्जन करने के लिए अल्पकाल के लिए कल्पवास का विधान बनाया था। इस योजना के अनुसार अनेक धार्मिक गृहस्थ ग्यारह महीने तक अपनी गृहस्थी की व्यवस्था करने के बाद एक महीने के लिए संगम तट पर ऋषि-मुनियों के सान्निध्य मे जप-तप साधना आदि के द्वारा पुण्यार्जन करते थे। यही परम्परा आज भी कल्पवास के रूप में विद्यमान है।
महाभारत में कहा गया है कि एक सौ साल तक बिना अन्न ग्रहण किए तपस्या करने का जो फल है, माघ मास में कल्पवास करने भर से प्राप्त हो जाता है। कल्पवास की न्यूनतम अवधि एक रात्रि की है। बहुत से श्रद्धालु जीवनभर माघ मास गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम को समर्पित कर देते हैं। विधान के अनुसार एक रात्रि, तीन रात्रि, तीन महीना, छह महीना, छह वर्ष, 12 वर्ष या जीवनभर कल्पवास किया जा सकता है।
डॉ. गौतम ने बताया कि पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि आकाश तथा स्वर्ग में जो देवता हैं, वे भूमि पर जन्म लेने की इच्छा रखते हैं। वे चाहते हैं कि दुर्लभ मनुष्य का जन्म पाकर प्रयाग क्षेत्र में कल्पवास करें।
महाभारत के एक प्रसंग में मार्कंडेय ऋषि धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि राजन् प्रयाग तीर्थ सब पापों को नाश करने वाला है। जो भी व्यक्ति प्रयाग में एक महीना, इंद्रियों को वश में करके स्नान-ध्यान और कल्पवास करता है, उसके लिए स्वर्ग का स्थान सुरक्षित हो जाता है।
कल्पवास वेदकालीन अरण्य संस्कृति की देन है। कल्पवास के नियम हजारों वर्षों से चला आ रहा है। जब इलाहाबाद तीर्थराज प्रयाग कहलाता था और यह आज की तरह विशाल शहर न होकर ऋषियों की तपस्थली माना जाता था। यहां गंगा और यमुना के आस-पास घना जंगल था। इस जंगल में ऋषि-मुनि ध्यान और तप करते थे। ऋषियों ने गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान रखा।
उन्होंने बताया कि कल्पवास के नियम के अनुसार जब गृहस्थ कल्पवास का संकल्प लेकर आता है, वह पत्तों और घास-फूस की बनी कुटिया में रहता था जिसे उसे पर्ण कुटी कहा जाता था। इस दौरान एक बार ही भोजन किया जाता है और मानसिक रूप से धैर्य, अहिंसा और भक्तिभव का पालन किया जाता है। कल्पवासी सुबह की शुरुआत गंगा स्नान से करते हैं। उसके बाद दिन में संतों के साथ संत्संग किया जाता है और देर रात भजन कीर्तन चलता रहता है। दो महीने से अधिक का समय सांसारिक भागदौड़ से दूर तन और मन को नई स्फूर्ति देने वाला होता है।
पौष पूर्णिमा पर प्रयागराज कुंभ में सोमवार को दूसरा बड़ा स्नान पर्व है। हालांकि इस स्नान पर्व का प्रभाव दो दिन रहेगा। स्नान, दान और जप-तप की पौष पूर्णिमा का व्रत-पूजन सोमवार को करना पुण्यकारी है। इसी दिन से संगम में स्नान करने के साथ त्याग-तपस्या का प्रतीक कल्पवास आरंभ हो रहा है। देशभर के गृहस्थ संगम तीरे टेंट में रहकर माह भर भजन-कीर्तन करना शुरू करेंगे। मोक्ष की आस में संतों के सानिध्य में समय व्यतीत करेंगे। सुख-सुविधाओं का त्याग करके दिन में एक बार भोजन और तीन बार गंगा स्नान करके तपस्वी का जीवन व्यतीत करेंगे। (वार्ता)