Prayag Kumbh Mela History: जब सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं और बृहस्पति वृषभ राशि में होता है, तब प्रयाग में कुंभ मेले का आयोजन है। मान्यता अनुसार यह तीर्थ क्षेत्र लगभग 15 हजार ईसा पूर्व से विद्यामान है। यहां 3 हजार वर्षों से कुंभ का आयोजन होता आया है। प्रयागराज को हिंदू धर्म में तीर्थराज (तीर्थों का राजा) कहा गया है। गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती नदियों का संगम (त्रिवेणी संगम) इसे विशेष आध्यात्मिक महत्व प्रदान करता है। जब अमृत मंथन के बाद अमृत कलश निकला तो उस अमृत की पहली बूंद प्रयाग में ही गिरी थी। इसलिए इतिहास का पहला कुंभ यही आयोजित हुआ था। मान्यता है कि रामायण और महाभारत काल में प्रयाग में स्नान का उल्लेख मिलता है।
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ब्रह्म पुराण में प्रयाग में स्नान का उल्लेख है - प्रयाग में गंगा यमुना के तट पर माघ के महीने में स्नान करने से लाखों अश्वमेध यज्ञों का फल मिलता है। प्रयाग को सोम, वरुण और प्रजापति का जन्म स्थान माना जाता है। यह महान ऋषि भारद्वाज, ऋषि दुर्वासा और अन्य ऋषियों की तपोभूमि भी है। ऋषि भारद्वाज लगभग 5000 ईसा पूर्व यहां रहते थे और 10000 से अधिक शिष्यों को शिक्षा देते थे।
शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि ''रेवा तीरे तप: कुर्यात मरणं जाह्नवी तटे।'' अर्थात, तपस्या करना हो तो नर्मदा के तट पर और शरीर त्यागना हो तो गंगा तट पर जाएं। गंगा के तट पर प्रयागराज, हरिद्वार, काशी आदि तीर्थ बसे हुए हैं। उसमें प्रयागराज का बहुत महत्व है। 'प्र' का अर्थ होता है बहुत बड़ा तथा 'याग' का अर्थ होता है यज्ञ। 'प्रकृष्टो यज्ञो अभूद्यत्र तदेव प्रयागः'- इस प्रकार इसका नाम 'प्रयाग' पड़ा।
कहते हैं कि यहां एक बस्ती थी जो भारद्वाज आश्रम के आसपास कहीं थी। पहले भारद्वाज आश्रम से झूंसी तक गंगा का क्षेत्र था। उस समय संगम कहीं चौक से पूर्व और दक्षिण अहियापुर में रहा था। फिर धीरे-धीरे इन नदियों के स्थान में परिवर्तन आया।
अतरसुइया (अत्रि और अनसुइया) प्रयागराज का सबसे पुराना मोहल्ला है जो अकबर के समय से पहले से ही विद्यामान था। खुल्दाबाद जहांगीर के समय में आबाद हुआ, दारागंज दाराशिकोह के नाम पर कायम हुआ। कटरा औरगंजेब के समय में जयपुर के महाराजा सवाईसिंह ने बसाया था।
बांध के नीचे गंगा, यमुना और सरस्वती का पवित्र संगम क्षेत्र जहां प्रतिवर्ष माघ में और छठवें तथा बारहवें वर्ष अर्द्धकुंभ और कुंभ के अवसर पर समग्र देश के विभिन्न अंचलों से करोड़ों लोग यहां स्नान के लिए आते हैं। 600 ईसा पूर्व में वर्तमान प्रयागराज जिला के भागों को आवृत्त करता हुआ एक राज्य था। इसे 'कौशाम्बी' की राजधानी के साथ "वत्स" कहा जाता था। जिसके अवशेष आज भी प्रयागराज के पश्चिम में स्थित है। महात्मा गौतम बुद्ध ने इस पवित्र नगरी की तीन बार यात्राएं की थी। इससे सिद्ध होता है कि तब यह क्षेत्र एक नगर के रूप में विकसित था।
इस क्षेत्र के मौर्य साम्राज्य के अधीन आने के पश्चात् कौशाम्बी को अशोक के प्रांतों में से एक का मुख्यालय बनाया गया था। उसके अनुदेशों के अधीन दो अखण्ड स्तम्भों का निर्माण कौशाम्बी में किया गया था। जिनमें से एक बाद में प्रयागराज स्थानांतरित कर दिया गया था। मौर्य साम्राज्य की पुरातन वस्तुएं एवं अवशेषों की खुदायी, जिले के एक अन्य महत्वपूर्ण स्थान भीटा से की गयी है।
मौर्य के पश्चात् शुंगों ने वत्स या प्रयागराज क्षेत्र पर राज्य किया। यह प्रयागराज जिले में पाई गई शुंगकालीन कलात्मक वस्तुओं से सिद्ध होता है। शुंगों के पश्चात् कुषाण सत्ता में आए- कनिष्क की एक मुहर और एक अद्वितीय मूर्ति लेखन कौशाम्बी में पाई गई। कौशाम्बी, भीटा एवं झूंसी में गुप्त काल की वस्तुएं मिलता इसकी प्राचीनता का सिद्ध करता है।
अशोक स्तम्भ के निकाय पर समुद्रगुप्त की प्रशस्ति की पंक्तियां खुदी हुई हैं जब कि झूंसी में वहां उसके पश्चात् नामित समुद्र कूप विद्यमान है। गुप्तों के पराभव पर प्रयागराज का भविष्य विस्मृत हो गया। हृवेनसांग ने 7वीं शताब्दी में प्रयागराज की यात्रा की थी और प्रयाग को मूर्तिपूजकों का एक महान शहर के रूप में वर्णित किया था।
भारतीय जन-जीवन का इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि आचार्य शंकर साधु-सम्मलेन के प्रवर्तक नहीं थे। महाभारत, भागवत, पुराणादि से ज्ञात होता है कि अनादिकाल से भारत में ऐसे सम्मेलन होते आए हैं। नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, प्रभासादि पुण्य क्षेत्रों में असंख्य ऋषि-महर्षि और साधु-महात्मा एकत्रित्र होकर याग-यज्ञ, तपोहनुष्ठान और शास्त्रार्थ करते रहे।
देश तथा समाज की स्थिति, रीति, प्रकृति पर विचार-विमर्श करते हुए धर्म की सृष्टि और संरक्षण की व्यवस्था करते रहे। मानव जाति की शाश्वत कल्याण के उपायों पर विचार करते रहे। सम्राट श्री हर्षवर्धन प्रयाग में प्रति पांचवें वर्ष सर्व त्याग यज्ञ अनुष्ठित करते थे, जहां अगणित साधु और महापुरुषों का सम्मेलन होता था, जिसकी स्मृति कुंभ मेला की याद दिला रही है।
कलशस्य मुखे विष्णु कण्ठे रुद्र समाश्रित:।
मूलेतत्रस्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्थिता:।।
कुक्षौ तु सागरा: सर्वे सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेद: सामवेदो ह्यथवर्ण।।
अंगैश्च सहिता: सर्वे कुम्भं तु समाश्रिता:।