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नागा साधुओं की उत्पत्ति का क्या है राज, जानकर चौंक जाएंगे आप

हमें फॉलो करें नागा साधुओं की उत्पत्ति का क्या है राज, जानकर चौंक जाएंगे आप

WD Feature Desk

, गुरुवार, 9 जनवरी 2025 (17:11 IST)
Naga Sanyasis:नाग, नाथ और नागा बहुत प्राचीन संत संप्रदाय है। सबसे पहले वेद व्यास ने संगठित रूप से वनवासी संन्यासी परंपरा शुरू की। उसके बाद शुकदेव ने, फिर अनेक ऋषि और संतों ने इस परंपरा को अपने-अपने तरीके से नया आकार दिया। बाद में शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित कर दसनामी संप्रदाय का गठन किया। बाद में अखाड़ों की परंपरा शुरू हुई। पहला अखाड़ा अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में बना।ALSO READ: कुंभ मेले के बाद कहां चले जाते हैं नागा साधु? जानिए कैसी होती है नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया
 
कुछ विद्वानों का मत है कि नागा सन्यासियों के अखाड़े आदि शंकराचार्य के पहले भी थे, लेकिन उस समय इन्हें अखाड़ा नाम से नहीं पुकारा जाता था। इन्हें बेड़ा अर्थात साधुओं का जत्था कहा जाता था। पहले अखाड़ा शब्द का चलन नहीं था। साधुओं के जत्थे में पीर और तद्वीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुगल काल से शुरू हुआ। कुछ अन्य इतिहासकार यह मानते हैं कि भारत में नागा संप्रदाय की परंपरा प्रागैतिहासिक काल से शुरू हुई है। सिंधु की घाटी में स्थित विख्यात मोहनजोदड़ो की खुदाई में पाई जाने वाली मुद्रा तथा उस पर पशुओं द्वारा पूजित एवं दिगंबर रूप में विराजमान पशुपति की प्रतिमा इस बात का प्रमाण है कि वैदिक साहित्य में भी ऐसे जटाधारी तपस्वियों का वर्णन मिलता है। भगवान शिव इन तपस्वियों के आराध्य देव हैं। सिकंदर महान के साथ आए यूनानियों को अनेक दिगंबर साधुओं के दर्शन हुए थे। बुद्ध और महावीर भी इन्हीं साधुओं के दो प्रधान संघों के अधिनायक थे। जैन धर्म में जो दिगंबर साधु होते हैं और हिंदुओं में जो नागा संन्यासी हैं वे दोनों ही एक ही परंपरा से निकले हुए हैं। इस देश में नागा जाति भी होती है जो नागालैंड में रहती है।
 
नागा साधुओं की उत्पत्ति का क्या है राज?
किसी भी अखाड़े में दीक्षा लेने के बाद 12 साल की तपस्या के बाद किसी दशनामी साधुओं को पद दिया जाता है। दशनामी में मंडलेश्वर और नागा पद होते हैं। मंडलेश्वर धर्म के ज्ञान का प्रचार प्रसार करने के लिए होता है यानी कि वह शास्त्रधारी होता है। नागा साधु धर्म की रक्षा के लिए होता है यानी कि वह शस्त्रधारी होता है। जब भारतीय धर्म को प्राचीनकाल से ही ऐसे लोगों की जरूरत हुई जो आक्रमणकारियों से जनता की रक्षा करके धर्म की रक्षा भी करें। इसलिए नागा साधुओं की उत्पत्ति हुई। 
 
नागा शब्द की उत्पत्ति के बारे में कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह शब्द संस्कृत के नागा शब्द से निकला है, जिसका अर्थ 'पहाड़' से होता है और इस पर रहने वाले लोग 'पहाड़ी' या 'नागा' कहलाते हैं। कच्छारी भाषा में 'नागा' से तात्पर्य 'एक युवा बहादुर लड़ाकू व्यक्ति' से लिया जाता है। धर्म रक्षा के लिए नागाओं को हर तरह के शस्त्र चलाने की शिक्षा और ट्रेनिंग दी जाती है। इस शिक्षा और ट्रेनिंग को प्राप्त करके नागा साधु किसी ब्लैक कमांडो की तरह बन जाता है जो हिमालय के शून्य डिग्री के तापमान से लेकर राजस्थान के 50 डिग्री तापमान में भी रह सकता है।ALSO READ: महाकुंभ 2025: कौन होते हैं नागा साधु, जानिए क्या है इनके अद्भुत जीवन का रहस्य?
 
नागाओं की शिक्षा और दीक्षा : नागा साधुओं को सबसे पहले ब्रह्मचारी बनने की शिक्षा दी जाती है। इस परीक्षा को पास करने के बाद महापुरुष दीक्षा होती है। बाद की परीक्षा खुद के यज्ञोपवीत और पिंडदान की होती है जिसे बिजवान कहा जाता है। अंतिम परीक्षा दिगम्बर और फिर श्री दिगम्बर की होती है। दिगम्बर नागा एक लंगोटी धारण कर सकता है, लेकिन श्री दिगम्बर को बिना कपड़े के रहना होता है। श्री दिगम्बर नागा की इन्द्री तोड़ दी जाती है।
 
नागाओं के नाम : किसी भी अखाड़े में दीक्षा लेने के बाद 12 साल की तपस्या के बाद किसी दशनामी साधुओं को पद दिया जाता है। दशनामी में मंडलेश्वर और नागा पद होते हैं। चार जगहों पर होने वाले कुंभ में नागा साधु बनने पर उन्हें अलग अलग नाम दिए जाते हैं। प्रयागराज के कुंभ में उपाधि पाने वाले को 1.नागा, उज्जैन में 2.खूनी नागा, हरिद्वार में 3.बर्फानी नागा तथा नासिक में उपाधि पाने वाले को 4.खिचडिया नागा कहा जाता है। नागा एक पदवी होती है। साधुओं में वैष्णव, शैव और उदासीन तीनों ही संप्रदायों के अखाड़े नागा बनाते हैं। नागा में बहुत से वस्त्रधारी और बहुत से दिगंबर (निर्वस्त्र) होते हैं।
 
कहां रहते हैं नागा साधु : नागा साधु अखाड़े के आश्रम और मंदिरों में रहते हैं। कुछ तप के लिए हिमालय या ऊंचे पहाड़ों की गुफाओं में जीवन बिताते हैं। अखाड़े के आदेशानुसार यह पैदल भ्रमण भी करते हैं। इसी दौरान किसी गांव की मेर पर झोपड़ी बनाकर धुनी रमाते हैं।
 
नागा बेड़ा : नागा सन्यासियों के अखाड़े आदि शंकराचार्य के पहले भी थे, लेकिन उस समय इन्हें अखाड़ा नाम से नहीं पुकारा जाता था। इन्हें बेड़ा अर्थात साधुओं का जत्था कहा जाता था। साधुओं के जत्थे में पीर और तद्वीर होते थे। अखाड़ा शब्द का चलन मुगल काल से शुरू हुआ।ALSO READ: prayagraj kumbh mela 2025: 16 नहीं 17 श्रृंगार करते हैं नागा साधु, जानिए लिस्ट
 
प्रस्तुति : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु' 

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