- कपिल भट्ट, जयपुर
आठ दिसंबर को निकलने वाले चुनाव परिणामों में सरकार चाहे कांग्रेस की बने या भाजपा की, सत्ता का सिंहासन चुनौतियों भरा होगा। इनमे अधिकतर मुद्दे ऐसे हैं जो पिछले लंबे अरसे चिंता का विषय बने हुए हैं।
राजस्थान आर्थिक रूप से बेहद पिछड़ा राज्य है। इसका प्रमुख कारण राजस्थान में औद्योगिकीकरण का वातावरण अभी तक नहीं बन पाना है। राजस्थान में आजादी के छह दशक बाद भी आधारभूत ढांचा तैयार नहीं हो सका है। रेगिस्तानी प्रांत होने की वजह से यहां पानी का संकट तो हमेशा ही बना रहता है, उद्योगों के लिए सबसे बड़ी जरूरत बिजली के उत्पादन में भी यह राज्य बहुत पीछे है। प्रदेश की अभी तक बिजली उत्पादन क्षमता करीब सात हजार मेगावाट है। जरूरत के समय इसे चार सौ से पांच सौ मेगावाट बिजली दूसरे राज्यों से खरीदनी पड़ती है।
बिजली की इस कमी को दूर करना किसी भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगा। बिजली की कमी का विपरीत असर कृषि पर पड़ता है। गांवों में आम शिकायत रहती है कि खेती के लिए पूरे आठ घंटे बिजली नहीं मिल पाती। सरकार की माली हालत भी अच्छी नही कही जा सकती। पिछले पांच सालों में राजस्थान पर कर्ज का बोझ बढ़कर 79 हजार करोड़ तक जा पहुँचा है। प्रदेश में प्रति व्यक्ति कर्ज का भार 12 हजार रुपए है। ऐसे में सस्ती दरों पर किसान को बिजली देने के वादे को निभाने के लिए सरकार को बिजली कंपनियों को क्षतिपूर्ति करना आसान नहीं होगा।
बिजली के बाद दूसरी बड़ी चुनौती पानी है। राजस्थान का ज्यादातर भाग रेतीला होने की वजह से यह पानी की कमी से जूझता रहता है। पानी चाहे पीने के लिए हो अथवा सिंचाई के लिए, कमी हमेशा बनी रहती है। पिछले पांच सालों के भाजपा शासन के दौरान प्रदेश के कई हिस्सों मे पानी को लेकर किसानों के उग्र आंदोलन हुए जिसमें कई किसान पुलिस की गोली से मारे गए। पेयजल और सिंचाई के पानी का स्थाई समाधान खोज पाना किसी भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी।
तीसरी सबसे बड़ी चुनौती है आरक्षण की आग। राजस्थान में पिछले एक दशक से आरक्षण के नाम पर जिस तरह जातिवाद की विषबेल फैली है,उसने इस प्रांत के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर दिया है। ओबीसी के आरक्षण पर जाट बनाम मूल ओबीसी का मुद्दा हो अथवा गरीब सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की मांग हो, यह मुद्दे लगातार प्रदेश के राजनीतिक पटल पर सुलगते रहे। लेकिन पिछले दो सालों में अनुसूचित जनजाति आरक्षण की मांग को लेकर दो बार हुए गुर्जरों के हिंसक आंदोलन ने तो जैसे इस प्रदेश के सामाजिक सौहार्द पर ग्रहण सा लगा दिया।
नई सरकार के लिए राजस्थान की विभिन्न जातियों के बीच सामंजस्य बिठाकर सामाजिक सौहार्द के वातावरण को फिर से बहाल करना बड़ी चुनौती होगा। कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणापत्र में सामाजिक और सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने पर चिंता जताते हुए इसकी पुनः बहाली का वादा भी किया है। लेकिन इस राह में आरक्षण की राजनीति फिर से कांटे बिछा सकती है। राजस्थान विधानसभा ने गरीब अगड़ों को 14 प्रतिशत तथा गुर्जरों को पांच प्रतिशत विशेष श्रेणी का आरक्षण देने का जो बिल पास किया था, वह छह महीने से राजभवन में राज्यपाल के दस्तखत के इंतजार में पड़ा हुआ है।
अगर भाजपा की सत्ता में वापसी होती है तो उसके लिए यह जरूरी होगा कि आरक्षण पर की गई अपनी इस पहल को जल्द से जल्द अमलीजामा पहनाए। वहीं कांग्रेस भी इस बिल को पास करवाकर आरक्षण का श्रेय लेने की कोशिश कर सकती है। बढ़ती बेरोजगारी देश के साथ ही राजस्थान के लिए भी पिछले कई सालों से चुनौती बनी हुई है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही आने वाले पांच सालों में दस लाख युवाओं को सरकारी और निजी क्षेत्र में रोजगार देने का वादा किया है। इसे पूरा कर युवाओं के भविष्य के नए आयाम खोलना राज्य सरकारों के लिए बहुत अहम चुनौती होगा। गांवों में रोजगार के अवसर सृजित कर शहरों की ओर पलायन रोकना भी जरूरी है।
इन समान मुद्दों के अलावा कुछ ऐसे मामले भी हैं जो दोनो ही पार्टियों के साथ अलग-अलग चुनौतियां पेश करते हैं।