काश, होती जो मैं एक चिड़िया
जैसे उड़ आई अपने बाबुल के अंगना से
फिर उड़ जाती
मायके की मीठी बयारों को सुंघने
बैठ जाती मिट्टी की लाल मुंडेर पर
देती आवाज पूजा घर में चंदन घिसती दादी को
सूर्य को अर्घ्य देते दादाजी को
खाट कसते बापू को
पिंजरे में कटोरी बजाते हीरामन तोते को
चारे के लिए रंभाती गाय को
रात की रानी को
तुलसी के बिरवे को
चौक पूरती मां को
धान फटकती काकी को
बारिश के लिए छप्पर बदलते काका को
और फिर अपने 'अनमोल रतन' भैया को. ..
कहती- देखो मैं आ गई
रक्षाबंधन की मर्यादा को निभाने
ससुराल के बंधनों को छोड़कर
अपने आकुल मन को जोड़कर
मान-अपमान के हल्के छींटे मत पड़ने देना
मेरे मन के कोरे कागज पर,
और हां, इतना सम्मान भी मत देना कि
मैं तुम्हारी न होकर पराई हो जाऊं
मेहमान बन जाऊं
मुझे हक देना
अपने भतीजे को डांटने का...
डर गई हूं मैं कल अखबार में यह खबर देखकर
कि राखी के दो दिन पहले
भतीजे ने कुल्हाड़ी मार दी
बुआ के सिर पर
नहीं कुछ कहूंगी मैं किसी से
बस अपने द्वार
सदा के लिए खुले रखना
मेरे लिए
राखी पर मैं आऊंगी
हर बाधा को पार कर
हर दूरी को लांघ कर
मेरा इंतजार करना मेरे मायके... !!