लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद भगवान श्रीराम अयोध्या में अपने परिजनों के साथ बैठे हुए थे। श्रीराम, हनुमानजी द्वारा की गई सहायता को याद कर भावविभोर हो रहे थे। वह बोले, ' हनुमान ने संकट के समय मेरी सहायता की, लेकिन मैंने उन्हें कुछ भी नहीं दिया।'
उन्होंने हनुमानजी से कहा, मैंने विभीषण को लंका का राज्य दिया। सुग्रीव को किष्किंधा का राजा और अंगद को युवराज बनाया। आज मैं तुम्हें भी कुछ देना चाहता हूं। इसलिए तुम इच्छित वर मांग सकते हो।
हनुमानजी निष्काम भक्ति के साकार रूप थे। उन्होंने श्रीराम से विनम्रता से कहा, प्रभु आप मुझसे बहुत प्रेम करते हैं। मुझ पर आपकी असीम कृपा है। अब और मांगकर क्या करूंगा।
लेकिन श्रीराम हनुमानजी को उस दिन कुछ न कुछ देने के लिए आकांक्षी थे। अचानक हनुमानजी ने कहा कि, भगवान आपने सभी को एक-एक पद(चरण) दिए हैं। क्या आप मुझे भी पद दे सकेंगे। श्रीराम कुछ समझ नहीं पाए, फिर भी बोले तुम्हें कौन सा पद चाहिए हनुमान?
हनुमानजी अपने स्थान से उठे और उन्होंने प्रभु राम के चरण पकड़ लिए। हनुमानजी बोले, मैं इन दो पदों की हर क्षण सेवा करता रहूं, यही वरदान चाहिए।
श्रीराम की आंखों से अश्रु बहने लगे और उन्होंने श्री हनुमान जी को को गले लगा कर यह वरदान दिया कि जीवन भर उनकी सेवा करते रहें।