उषा शर्मा भारत पर्वों का देश है। यहाँ की दिनचर्या में ही पर्व-त्योहार बसे हुए हैं। ऐसा ही एक पर्व है रामनवमी। असुरों का संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने राम रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए।
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आज भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जन्मोत्सव तो धूमधाम से मनाया जाता है पर उनके आदर्शों को जीवन में नहीं उतारा जाता। अयोध्या के राजकुमार होते हुए भी भगवान राम अपने पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग 14 वर्ष के लिए वन चले गए और आज देखें तो वैभव की लालसा में ही पुत्र अपने माता-पिता का काल बन रहा है।
हम रामनवमी और जन्माष्टमी तो उल्लासपूर्वक मनाते हैं पर उनके कर्म व संदेश को नहीं अपनाते। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया गीता ज्ञान आज सिर्फ एक ग्रंथ बनकर रह गया है। तुलसीदासजी ने रामचरित मानस में भगवान राम के जीवन का वर्णन करते हुए बताया है कि श्रीराम प्रातः अपने माता-पिता के चरण स्पर्श करते थे जबकि आज चरण स्पर्श तो दूर बच्चे माता-पिता की बात तक नहीं मानते।
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परिस्थिति यह है कि महापुरुषों के आदर्श सिर्फ टीवी धारावाहिकों और किताबों तक सिमटकर रह गए हैं। नेताओं ने भी सत्ता हासिल करने के लिए श्रीराम नाम का सहारा लेकर धर्म की आड़ में वोट बटोरे पर राम के गुणों को अपनाया नहीं।
यदि राम की सही मायने में आराधना करनी है और राम राज्य स्थापित करना है तो "जय श्रीराम" के उच्चारण के पहले उनके आदर्शों और विचारों को आत्मसात किया जाए।