बीसवां रोजा दरअसल मगफिरत (मोक्ष) के अशरे (कालखंड) की आख़िरी कड़ी है। जैसा कि पहले भी बयान किया जा चुका है कि ग्यारहवें रोज़े से शुरू होकर बीसवें रोज़े तक की बीच के दस दिनों की रोजादार की परहेज़गारी, इबादत, तिलावते-कुरआन (कुरआन का पठन-पाठन) और तक़्वा (पवित्र आचरण) के साथ अल्लाह की फ़र्मांबरदारी (आदेश मानना) ही मगफिरत (मोक्ष) की रोशनी का मुस्तहिक (अधिकारी/पात्र) बनाती है।
बीसवें रोजे की तश्बीह (उपमा) कुछ इस तरह होगी। रोजा रूहानी काउंटर है। तक्वा तरा़ज़ू है। पाकीज़गी और परहेज़गारी पलड़े हैं। सब्र इस तराजू की डंडी या ग्रिप है। अल्लाह पर ईमान इसका बाट है। मगफिरत सामान है।
यों भी कहा जा सकता है कि रोजा सब्र का प्याला और मगफिरत का उजाला है। सवाल यह उठता है कि मगफिरत का यह उजाला नसीब कैसे हो? इसका जवाब कुरआने-पाक की सूरह 'आले इमरान की आयत नंबर सत्तावन (आयत-57) में इस तरह है- 'और जो ईमान लाए और अमल-ए-नेक (सत्कर्म) करते रहे उनको ख़ुदा पूरा-पूरा सिला (रिटर्न/प्रतिदान) देगा।'
इस आयत की रोशनी में ज़ाहिर हो जाता है कि रोजादार के रोजे का सिला (रिटर्न) अल्लाह देगा।' एक तो रोजा खुद अमल-ए-नेक है फिर अल्लाह पर ईमान भी है यानी अल्लाह की इबादत का तरीका भी है, इसलिए मगफिरत के अशरे में इस इबादत (यानी सब्र/तक्वे के साथ रखा गया रोजा) का सिला सिर्फ मगफिरत (मोक्ष) ही है। यानी सब्र, ईमान और तक्वदारी के साथ नेक अमल रोजादार के लिए मगफिरत की गारंटी है।
अल्लाह ने मगफिरत नवाकने के इस वादे को कुरआने-पाक के तीसवें पारे (अध्याय-30) की सूरह 'अल बलद' की आयत -17 और 18 में फिर दोहराया है- 'जो ईमान लाए और सब्र की नसीहत और शफकत की वसीयत करते रहे यही लोग साहिबे सआदत (मगफिरत) हैं। प्रस्तुति : अजहर हाशमी