अयोध्या की सरयू नदी के दाहिने तट पर ऊंचे टीले पर स्थित हनुमानगढ़ी सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है। यहां तक पहुंचने के लिए लगभग 76 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। यहां पर स्थापित हनुमानजी की प्रतिमा केवल छः (6) इंच लंबी है, जो हमेशा फूलमालाओं से सुशोभित रहती है। हनुमान गढ़ी, वास्तव में एक गुफा मंदिर है।
इस मंदिर के जीर्णोद्धार के पीछे एक कहानी है। कहते हैं कि सुल्तान मंसूर अली लखनऊ और फैजाबाद का प्रशासक था। इस दौर में एक बार सुल्तान का एकमात्र पुत्र बहुत बीमार पड़ा। चिकित्सा सुविधाएं उस दौरा में इतनी ज्यादा नहीं हुआ करती थी। वैद्य और डॉक्टरों ने जब हाथ टेक दिए, तब अंतिम विकल्प के रूप में सुल्तान ने थक-हारकर आंजनेय के चरणों में अपना माथा रख दिया। उसने हनुमान से विनती की की किसी पर तरह मेरे पुत्र को बच लें। तभी न जाने कैसे चमत्कार हुआ कि उसका पुत्र पूर्ण स्वस्थ हो गया। उसकी धड़कनें फिर से सामान्य हो गईं।
यह कोई सामान्य घटना नहीं थी सुल्तान के लिए तो यह हनुमानगढ़ी के हनुमानजी का ही चमत्कार था। तब सुल्तान ने खुश होकर अपनी आस्था और श्रद्धा को मूर्तरूप दिया- हनुमानगढ़ और इमली वन के माध्यम से। उसने इस जीर्ण-शीर्ण मंदिर को विराट रूप देने के लिए 52 बीघा भूमि हनुमानगढ़ी और इमली वन के लिए उपलब्ध करवाई। 300 साल पूर्व संत अभयारामदास के सहयोग और निर्देशन में यहां पर हनुमान मंदिर का विशाल निर्माण संपन्न हुआ। संत अभयारामदास निर्वाणी अखाड़ा के शिष्य थे।
वर्तमान हनुमानगढ़ी को अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने बनवाया था। इसके पहले वहां हनुमानजी की एक छोटी सी मूर्ति को टीले पर पेड़ के नीचे लोग पूजते थे। बाबा अभयराम ने नवाब शुजाउद्दौला (1739-1754) के शहजादे की जान बचाई थी। जब वैद्य और हकीम ने हाथ टेक दिए थे तब कहते हैं कि नावाब के मंत्रियों ने अभयरामदास से मिन्नत की थी कि एक बार आकर नवाब के पुत्र को देख लें। अभयराम ने कुछ मंत्र पढ़कर हनुमानजी के चरणामृत का जल छिड़का था जिसके चलते उनके पुत्र की जान बच गई थी। जय श्रीराम।