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सल्लेखना के बारे में सही अवधारणा समाज में पहुंचाए : आचार्य विद्यासागर

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- अनुपमा जैन

बीना बारहा (मध्यप्रदेश)। तपस्वी दार्शनिक जैन आचार्य विद्यासागर ने सल्लेखना को चरम तप साधना बताते हुए कहा है कि अगर इस के बारे में पूरा अध्ययन किया जाए, इसे समझा जाए तो इसके बारे में भ्रांतियों का समाधान हो सकेगा। जरूरत इस बात की है कि मन वचन और काया की अहिंसा के सिद्धांत में विश्वास करने वाला जैन समाज सल्लेखना के बारे में सही अवधारणा समाज में पहुंचाए, कोई वजह नहीं है समाज इसकी सही अवधारणा को समझेगा।
 
























यहां श्रद्धालुओं की विशाल धर्म सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि दरअसल सल्लेखना ग्रहण करना मंदिर निर्माण के बाद कलशारोहण जैसा है। सल्लेखना लेने वाले भावुक नहीं होते है। प्रीति, संतोष, धैर्य, धीरज के साथ निडरता पूर्वक संलेखना ग्रहण करते है। जिस प्रकार मंदिर निर्माण हो जाने पर कलशा रोहण होता है बस वही कलशारोहण ही संलेखना है।
 
उन्होंने कहा कि शास्त्रों में भी संतो ने कहा है 'सभी को संलेखना प्राप्त हो। उन्होंने कहा सल्लेखना साधना है, तप है इसे मृत्यु वरण नहीं कहा जा सकता है। विनोबा भावे ने जैन धर्म के सिद्धांतो को समझा और संलेखना को समझा। 
 
जब वे संलेखना कर रहे तो उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने विनोवा भावे से कहा आप भोजन ग्रहण कर लीजिए, अभी हम सब को आपकी बहुत आवश्यता है। हमें महत्वपूर्ण बिंदुओं पर आपसे चर्चा करना है। तब विनोवा भावे ने कहा मेरा और परमात्मा के बीच में किसी और कोई की आवश्यकता नहीं यह जड़ तत्व जा रहा है, इसे जाने दों। सल्लेखना का यही तत्व, सार है।
 
उल्लेखनीय है कि हाल ही में सल्लेखना, संथारा प्रथा पर रोक लगाए जाने के राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले को लेकर जैन समाज मे भारी असंतोष है। उन्होंने इसे अपनी धर्मिक रीतियों में हस्तक्षेप माना है (वीएनआई)
 

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