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कश्मीर में आज भी जिंदा है 'कश्मीरियत'

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सुरेश एस डुग्गर

श्रीनगर। कश्मीर में ‘कश्मीरियत’ आज भी जिंदा है। कश्मीर की वादियों में सालों से चल रहे विरोध प्रदर्शन और भारत-पाकिस्तान से आजादी की मांग में फैले बारूद की गंध के बाद कई बार घाटी में प्यार, मोहब्बत और भाईचारे की महक देखने को मिली है। 
 
ऐसी ही एक भाईचारे की मिसाल एक बार फिर कश्मीर और कश्मीरी मुस्लिम समुदाय और कश्मीरी पंडित समुदाय के बीच देखने को मिली है। एक ओर जहां जम्मू-कश्मीर में आतंकियों द्वारा हमले किए जा रहे हैं, पाकिस्तान हमला करने में लगा है, तो दूसरी ओर आतंकियों के नापाक मंसूबों को असफल करते हुए एक मिसाल पेश की गई है।
 
घाटी के लोगों ने एक बार फिर आतंकवादियों और अलगाववादियों को ‘कश्मीरियत’ का पाठ पढ़ाया है। मुस्लिम लोगों ने एकता और भाईचारे का संदेश दिया है। पुलवामा में एक कश्मीरी पंडित के अंतिम संस्कार में हजारों मुसलमान शामिल हुए और एकता-भाईचारे का संदेश दिया। दरअसल, मुस्लिमजन क्षेत्र के एक कश्मीरी पंडित के अंतिम संस्कार में ही शामिल नहीं हुए बल्कि खुद उन्होंने सारी रस्मों को भी पूरा किया।
 
पुलवामा के मुस्लिम बहुल त्रिचल गांव में निवास करने वाले कश्मीरी पंडित 50 वर्षीय तेजकिशन करीब डेढ़ वर्ष से बीमार थे। शुक्रवार को उनकी मौत हो गई तो मुस्लिम समुदाय के लोग बड़ी संख्या में उनके घर जुटे। मुसलमानों ने हिन्दू रीति-रिवाजों से अंतिम संस्कार करने में शोक-संतप्त परिवार की पूरी मदद की। 
 
मृत तेजकिशन के भाई जानकीनाथ पंडित ने कहा कि यह असली कश्मीर है। यह हमारी संस्कृति है और हम भाईचारे के साथ रहते हैं। हम बंटवारे की राजनीति में विश्वास नहीं रखते। 1990 के दशक में जब इस्लामिक कश्मीरी आतंकवाद की वजह से लाखों कश्मीरी पंडित वादी से पलायन कर गए तब भी तेजकिशन ने यहीं बसे रहने का फैसला किया था। इनके निधन पर मुस्लिम समुदाय के लोग बड़े पैमाने पर घर में जुट गए। ये लोग कश्मीरी पंडित के अंतिम संस्कार में शामिल हुए और इन लोगों ने परिवार की सहायता भी की। 
 
पड़ोसी मोहम्मद यूसुफ ने कहा कि अंतिम संस्कार में शामिल लोग मुसलमान थे। उन्होंने कहा था कि हिन्दू और मुसलमानों को बांटने के प्रयास की घटनाओं की निंदा की जाना चाहिए। अंतिम संस्कार में शामिल अधिकतर लोग मुस्लिम थे। हमने उनकी अंतिम रस्मों को पूरा किया। हम हिन्दू और मुसलमानों को बांटने के प्रयास में होने वाली घटनाओं की निंदा करते हैं। हम यहां शांति और प्रेमभाव से रहते हैं। तेजकिशन के एक और रिश्तेदार ने बताया कि इस गांव में लोग बिना किसी सांप्रदायिक तनाव के रहते हैं।
 
तेजकिशन ने कभी अपना पैतृक स्थान नहीं छोड़ा। वे कहते थे कि वे मुसलमान दोस्तों के साथ पले-बढ़े और उन्हीं के बीच मरना पसंद करेंगे। जैसे ही किशन की मौत की जानकारी इलाके में फैली, उनके मुस्लिम दोस्त अस्पताल दौड़े और उनके शव को घर लाए। 
 
तेजकिशन की मौत की सूचना और अंतिम संस्कार में जुटने की जानकारी मस्जिद के लाउडस्पीकर से सबको दी गई। आतंकवादग्रस्त कश्मीर वादी में वैसे यह कोई पहला मामला नहीं है जिसमें कश्मीरी मुसलमानों ने किसी कश्मीरी पंडित के अंतिम संस्कार में अहम भूमिका निभाई हो, बल्कि अतीत में भी ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं।

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