जम्मू। चाहे पिछले 32 सालों से पाक समर्थक आतंकियों ने लाख कोशिशें की हों, पर कश्मीर में आज भी कश्मीरियत जिन्दा है। कश्मीरियत के मायने होते हैं आपसी सौहार्द और भाईचारा जिसमें धर्म नहीं होता और धर्म की चर्चा नहीं होती। ऐसी ही मिसाल एक बार फिर कश्मीर के उस इलाके से देखने को मिली है जहां सिर्फ बारूद की गंध ही फिजां में महका करती है।
पुलवामा जिला सिर्फ आतंकियों के हमलों, बम विस्फोटों, हत्याओं, केसर क्यारियों में केसर की खुशबू की जगह बारूद की गंध के लिए ही नहीं जाना जाएगा बल्कि कश्मीरियत की उस मिसाल के लिए भी पहचान बना चुका है जिसे नेस्तनाबूद करने की साजिशें अभी भी रची जा रही हैं। मुस्लिमों द्वारा कश्मीरी पंडित का अंतिम संस्कार करना, उसके अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियों तथा अन्य सामग्रियों का इंतजाम कोरोना काल में करना वाकई कश्मीरियत को सलाम ठोंकने जैसा है।
दरअसल कल पुलवामा जिले के बुचू त्राल गांव के निवासी कश्मीरी पंडित जागर नाथ बट का उनके पैतृक गांव में निधन हो गया। उनकी मृत्यु की खबर मिलते ही लोग घर पहुंचे। मुस्लिम युवाओं ने मृतक के दाह संस्कार में इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी और अन्य महत्वपूर्ण सामान की व्यवस्था की।
इस दौरान त्राल में मुस्लिम समुदाय के लोगों ने इंसानियत की अनूठी मिसाल पेश की है। मौत की खबर मिलते ही इलाके के मुस्लिम समुदाय के लोगों ने उनके घर पहुंचकर परिवार की मदद की। साथ ही मृतक के अंतिम संस्कार के लिए आवश्यक सामान की व्यवस्था की।
एक स्थानीय निवासी ने कहा कि वह एक ऐसी हस्ती थे जिन्हें सभी से प्यार था। वह इलाके के जानेमाने इंसान थे। उनकी मौत से इलाके में मातम का माहौल है। इलाके का हर इंसान आज दुखी है। जागर नाथ सहकारिता विभाग में ऑडिटर के पद से सेवानिवृत्त हुए थे।
मृतक जागर नाथ बट (95) ने कश्मीर उस वक्त भी नहीं छोड़ा था जब 1990 में आतंकवाद हावी था और कश्मीरी पंडितों के साथ बर्बरता हुई थी। इसके बाद भारी संख्या में कश्मीरी पंडितों को पलायन करना पड़ा था, लेकिन जागर नाथ ने अपने परिवार के साथ यहीं रुकने का फैसला किया था।
वैसे जागर नाथ ऐसे अकेले कश्मीरी पंडित नहीं थे कश्मीर के रहने वाले जिनके अंतिम संस्कार को उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने अंजाम दिया हो बल्कि कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद से ही बचेखुचे कश्मीरी पंडितों के लिए आज भी उनके कश्मीरी मुस्लिम पड़ोसी उनके काम आते हैं, चाहे खुशी का मौका हो या फिर गम की रात। दरअसल, इन कश्मीरी पंडितों ने तमाम बाधाओं और कोशिशों के बावजूद अपनी माटी का त्याग नहीं किया था।