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अजमेर शरीफ : होके मायूस इस दर से सवाली ना गया...

हमें फॉलो करें अजमेर शरीफ : होके मायूस इस दर से सवाली ना गया...
, गुरुवार, 29 जुलाई 2021 (19:26 IST)
-शुभम शर्मा 
  • सांप्रदायिक सद्भाव का है प्रतीक अजमेर की दरगाह
  • यहां ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का मकबरा है
  • देश-विदेश से बड़ी संख्‍या में लोग यहां आते हैं
  • साल में एक बार ख्वाजा का उर्स होता है
पूरे विश्व में सौहार्द का प्रतीक राजस्थान के अजमेर नगर में स्थित प्रसिद्ध सूफ़ी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (1141-1236) जिन्हें गरीब नवाज के नाम से भी जाना जाता है, की दरगाह है। यहां उनका मक़बरा स्थित है। यह स्थान मुस्लिमों के लिए मक्का और मदीना के बाद सबसे पवित्र स्थानों में गिना जाता है।
 
ख्वाजा साहब की दरगाह में हर साल बड़ी संख्या में लोग अपनी मुराद लेकर आते हैं और जियारत करते हैं। यह हिंदू-मुस्लिम एकता एवं सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक है, क्योंकि ना सिर्फ मुसलमान बल्कि हिंदू धर्म को मानने वाले लोग भी यहां दुआ मांगने तथा मुराद पूरी होने पर सजदा करने और चादर चढ़ाने आते हैं। सर्वधर्म ओर शांति का पैगाम लिए दरगाह एक अनूठा संगम है। इसके अलावा बड़े-बड़े राजनेता भी चादर चढ़ाने स्वयं आते हैं अथवा अपनी तरफ से ख्वाजा साहब के सालाना उर्स के दौरान चादर भिजवाते हैं, जिसमें भारत के प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति भी शामिल हैं।
 
पंडित जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, एपीजे अब्दुल कलाम, प्रणब मुखर्जी, मनमोहन सिंह जैसे दिग्गज राजनेता या तो ख्वाजा साहब की दरगाह पहुंचे हैं या फिर उनकी ओर से चादर पेश की गई है। बड़े-बड़े फिल्म स्टार भी अपनी फिल्मों की सफलता के लिए मुराद मांगने एवं चादर चढ़ाने अजमेर दरगाह आते हैं।
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पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से भी बड़ी संख्‍या में जायरीन अजमेर पहुंचते हैं। मुगल सम्राट अकबर भी पुत्र प्राप्ति के लिए, शेख सलीम चिश्ती के कहने पर पैदल अजमेर दरगाह मुराद मांगने आया था। इसके बाद पुत्र के रूप में जहांगीर का जन्म हुआ।
 
अजमेर शरीफ का इतिहास : आज से लगभग कोई 850 वर्ष पूर्व ईरान के एक छोटे से शहर संजर में हज़रत ख़्वाजा सैयद गयासुद्दीन के घर में एक बालक ने जन्म लिया था। बड़ा होने पर यह बालक अपने घर से दूर निकल गया और अपनी शिक्षा-दीक्षा अरब में पूरी की। इन्होंने सूफीवाद की शिक्षा फैलाने के लिए अपना स्थान छोड़ दिया था। वह भारत आकर अजमेर में बस गए थे। उन्होंने समानता व भाईचारे की शिक्षा फैलाई। सूफीवाद बीच का रास्ता दिखाने वाला दर्शन है। सूफीवाद भाईचारे, सद्भाव व समृद्धि की शिक्षा देता है।
 
दरगाह परिसर : दरगाह अजमेर शरीफ़ का मुख्य द्वार निज़ाम गेट कहलाता है। क्योंकि इसका निर्माण हैदराबाद स्टेट के निज़ाम मीर उस्मान अली खां ने करवाया था। उसके आगे मुग़ल सम्राट शाहजहां द्वारा बनवाया गया शाहजहानी दरवाज़ा आता है। अंत में सुल्तान महमूद ख़िलजी द्वारा बनवाया गया बुलंद दरवाज़ा आता है, जिस पर हर वर्ष सालाना उर्स के अवसर पर झंडा चढ़ाकर समारोह आरम्भ किया जाता है। 
 
दरगाह के अंदर एक स्मारक है जो कि हजरत चिश्ती के समय यहां पानी का मुख्य स्त्रोत था। इसे जहालरा कहते हैं। आज भी जहालरा का पानी दरगाह के पवित्र कामों में प्रयोग किया जाता है। पश्चिम में चांदी का पत्रा चढ़ा हुआ एक खूबसूरत दरवाजा है, जिसे जन्नती दरवाजा कहा जाता है। यह दरवाजा वर्ष में चार बार ही खुलता है- वार्षिक उर्स के समय, दो बार ईद पर और ख्वाजा शवाब के पीर के उर्स पर। अंदर बनी हुई अकबर मस्जिद अकबर द्वारा जहांगीर के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति के समय बनाई गई। वर्तमान में यहां मुस्लिम धर्म के बच्चों को कुरान की तालीम (शिक्षा) प्रदान की जाती है।
 
दरगाह की देग : दरगाह के अंदर दो बड़े-बड़े कड़ाह हैं, जिन्हे देग कहा जाता है। इनमें निआज (चावल, केसर, बादाम, घी, चीनी, मेवे को मिलाकर बनाया गया खाद्य पदार्थ) पकाया जाता है। यह खाना रात में बनाया जाता है और सुबह प्रसाद के रूप में जनता में वितरित किया जाता है। यहां छोटे कड़ाहे में लगभग 12.7 किलो और बड़े वाले में लगभग 31.8 किलो चावल बनाया जाता है। कड़ाहे का घेराव 20 फीट का है। बड़ा वाला कढ़ाहा बादशाह अकबर द्वारा दरगाह में भेंट किया गया जबकि छोटा वाला बादशाह जहांगीर द्वारा चढ़ाया गया। 
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उर्स : उर्स का वार्षिक त्योहार बुलंद दरवाजा पर ध्वज फहराने से शुरू होता है। उर्स का त्यौहार रजब के महीने में चांद दिखाई देने के बाद शुरू होता है। इस दौरान लाखों की संख्या में जायरीन देश विदेश से दुआ मांगने तथा चादर चढ़ाने आते हैं। उर्स के अवसर पर देश-विदेश की कई जानी-मानी हस्तियों द्वारा भी अपनी तरफ से चादर भिजवाई जाती है। इस मौके पर अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, नेपाल, म्यांमार, मॉरीशस और अन्य देशों से भी जायरीन ख्वाजा साहब की दरगाह में जियारत करने आते हैं। यह उर्स 6 दिन तक चलता है।

तकरीबन 2 लाख से भी अधिक चादरें उर्स के दौरान गरीब नवाज के दर पर पेश की जाती है। ऐसा माना जाता है कि जब ख्वाजा साहब 114 वर्ष के थे तो उन्होंने अपने आप को 6 दिन तक कमरे में रखकर अल्लाह की प्रार्थना की। न सिर्फ जायरीन बल्कि देश विदेश से कई कलंदर भी आते हैं और तरह-तरह की कलाबाजियों का प्रदर्शन करते हैं। रात को महफिल खाने में कव्वालियां चलती रहती हैं, जिसमें देश-विदेश के नामी कव्वाल आकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।

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