Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

नर्मदा किनारे राजघाट पर अनिश्चितकालीन सामूहिक उपवास...

हमें फॉलो करें नर्मदा किनारे राजघाट पर अनिश्चितकालीन सामूहिक उपवास...
* गांधी समाधि उखाड़ने वाली, जल समाधि देने वाली शासकीय हिंसा को चुनौती
 
बड़वानी। 27 जुलाई 2017 से नर्मदा किनारे राजघाट, जिला बड़वानी में दशकों से  स्थापित महात्मा गांधी की समाधि कस्तूरबा गांधी व महादेवभाई देसाई के अस्थि कलशों  सहित उखाड़ दी गई। 
 
इस समाधि को भी अंधेरे और बारिश के दौरान जेसीबी मशीन से उखाड़कर ले जाते हुए  इर्द-गिर्द के गांवों के प्रतिनिधियों तथा राजघाट के साधु-संतों ने आकर रोका और उखड़ी हुई  कलशभरी शिला फिर से समाधि स्थल पर रखवा दी। इस गैरकानूनी काम से राष्ट्रपिता की  हुई अवमानना, नर्मदा घाटी की राष्ट्रभक्त और नर्मदा भक्त जनता की श्रद्धा को पहुंची ठेस  की पूर्ति नहीं की जा सकती है।
 
आज जब नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा शासन की हर प्रकार से बढ़ती हिंसा और अत्याचार  के खिलाफ अनिश्चितकालीन उपवास का सामूहिक कदम उठाया जा रहा है, तब यह घटना  प्रतीकात्मक नहीं, देश के हालात को उजागर करती है। न जनतंत्र, न देश की आजादी की  कोई परवाह शासकों को है। गांधीजी के नाम पर स्वच्छता अभियान और चरखा चलाने वाले  प्रधानमंत्री इस पर क्या कहना चाहेंगे? शासनकर्ता न केवल अस्थियों, वरन् महात्मा गांधी  के आज तक जीते-जागते संदेश की अवमानना कर रहे हैं।
 
नर्मदा घाटी में थोपी जा रही है हिंसा और राजा खुद प्रजा के सामने उठा रहे युद्ध को और  ललकार रही है नर्मदा घाटी की जनता। गरीब से गरीब मजदूर, मछुआरे, नावड़ी वाले केवट,  व्यापारी और आदिवासियों सहित हर समाज के किसान मिलकर विकास के नाम पर हिंसा  को नकारकर, धिक्कारकर रोकना चाहते हैं।
 
आने वाली 31 जुलाई की तारीख को ही बंदिश मानकर सरदार सरोवर के विस्थापितों के  हजारों परिवारों को तत्काल हटाने की शासन की तैयारी चलते, 'अहिंसा परमो धर्म:' का ही  संदेश लेकर नर्मदा घाटी के ही नहीं, सभी जनांदोलनों के परिवर्तनकारी साथियों को ऐलान  करना जरूरी लगता है। 
 
देशभर में जाति, धर्म या धन-पूंजी के आधार पर बढ़ती जा रही हिंसा की जगह कश्मीर  घाटी से नर्मदा घाटी तक शांति और जन-जन के अधिकार को स्थापित करने की जरूरत  हमारे दिल-दिमाग पर छाई हुई है। विकास के नाम पर संविधान की अवमानना के साथ  संसाधनों की हो रही लूट न केवल बड़े बांधों-जलाशयों के जल बंटवारे के रूप में, बल्कि  कॉर्पोरेट जमींदारी के तहत बढ़ रही है। 
 
लाखों-करोड़ों किसान-खेत मजदूर घाटे का सौदा बनने वाली खेती बचाते-बचाते हत्या भुगत  रहे हैं। शहरी गरीबों की बस्तियों पर चल रहे बुलडोजर आवास ही नहीं, रोजी-रोटी और जीने  के अधिकार को कुचलते हुए दिख रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में नर्मदा की दुनिया में सबसे पुरानी  घाटी हिंसक हमले के सामने चुप नहीं बैठ सकती। घाटी के लोग व आम मेहनतकश लोग  हो रहा छलावा समझ चुके हैं। किसी को भी अपनी आजीविका, आवास एवं जीने के  अधिकार को डूबते नहीं देखना है।
 
सरदार सरोवर मात्र गुजरात के लिए राजनीतिक खिलौना बन चुका है। वर्षों ही नहीं, दशकों  से इसे लेकर गुजरात के सूखाग्रस्त क्षेत्र की जनता को भ्रमित किया, मृगजाल दिखाया  गया। 
 
2002 और 2006 से जितनी भी मात्रा में कच्छ, सौराष्ट्र व उत्तर गुजरात को पानी मिलना  था, उतनी मात्रा में नहीं मिला। कोका-कोला, कार फैक्टरी के लिए आवंटित व आरक्षित रखा  गया। यह कैसा विकास? किसका विकास? 
 
शासकीय राजपत्र (25-5-2017) के अनुसार 141 गांवों के 18,386 परिवारों को गांव छोड़ना  होगा। इस सूची में गांव में न रहने वाले, दशकों पहले गांव छोड़कर चले गए और बैकवॉटर  लेवल बदलकर जिन्हें डूब से बाहर कर दिया गया, उनके नाम सम्मिलित हैं। जबकि बरसों  से निवासरत, घोषित विस्थापितों को छोड़ दिया गया है। लेकिन हकीकत में 1980 के दशक  में सर्वेक्षित 192 गांव और 1 नगर में बसे 40,000 परिवार सरदार सरोवर बांध की 139  मीटर ऊंचाई से आज बाढ़ की स्थिति में जी रहे हैं। 
 
सरदार सरोवर से 1 बूंद पानी का लाभ न होते हुए मात्र गुजरात को पानी की जरूरत  मानकर, विकास की परियोजना बनाकर, मध्यप्रदेश के जीते-जागते गांवों की आहुति देने में  जरा भी न हिचकिचाती राज्य सरकार ने झूठे शपथपत्र भी दिए और परियोजना को विकास  का सर्वोच्च प्रतीक मान देश-विदेश में घोषित किया। 
 
प्रत्यक्ष में आज की स्थिति यह है कि गुजरात द्वारा नहरों का जाल 35 वर्षों में न बनाते  हुए मात्र गुजरात के बड़े शहर और कंपनियों को अधिकाधिक पानी दान करना तय किया  गया, लेकिन नाम रहा सूखाग्रस्तों का। जिनके लिए विविध मार्गों से पानी पहुंचाना था,  जिन बांधों में पानी भरना था, उन बांधों में आज प्रकृति ने इतना पानी भर दिया कि सुरेन्द्र  नगर राजकोट में बांध भरकर ओवरफ्लो की स्थिति में आ गए। कहीं आर्मी लानी पड़ी और  नर्मदा घाटी के निमाड़ के लोगों से पहले गुजरात के 5,000 लोगों को स्थानांतरित करना  पड़ा। 
 
कुछ सालों में एक बार यह हकीकत बनती आई है और इसी से सवाल उठता है कि क्या  गुजरात अपने जलग्रहण क्षेत्र और जल का सही विकेंद्रित नियोजन नहीं कर सकता? क्या  निमाड़ के पीढ़ियों पुराने गांवों का विनाश, खेतिहरों की बरबादी बच नहीं सकती? मध्यप्रदेश  को मात्र 56 फीसदी बिजली की भी क्या जरूरत है जबकि राज्य ने बरगी सहित अपने कई  शासकीय बिजलीघर बंद रखे हैं, तो क्या शासनकर्ता पुनर्वास कानूनी व न्यायपूर्ण स्वैच्छिक  के रूप से पूरा होने तक रुक नहीं सकते? 
 
'विस्थापितों का दर्द समझता हूं' ऐसा जवाब देने वाले मुख्यमंत्री सच्चाई बरतने, शपथपत्रों  में झूठे आंकड़े देकर अदालत की अवमानना न करने तथा विस्थापितों पर युद्धस्तरीय हमला  करने के बजाय संवाद से सुलझाव का रास्ता नहीं चाहते, यह स्पष्ट हो चुका है।
 
विकास का यह विकृत चित्र व राजनीतिक चरित्र असहनीय है। हिंसा का आधार न्याय  पालिका भी मंजूर नहीं कर सकती और धरातल की स्थिति की जांच-परख के बिना आदर्श  पुनर्वास का दावा मान्य नहीं कर सकती। विकास की अंधी दौड़ में मेहनतकश जनता को ही  नहीं, गांव, किसानी, प्रकृति, संस्कृति को कुचलना स्वीकार नहीं।

साभार - सप्रेस 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

कांग्रेस विधायक बोले, अहमद पटेल का जीतना मुश्किल