रायपुर। छत्तीसगढ़ के मुखयमंत्री डॉ. रमनसिंह के लिए 2013 का विधानसभा चुनाव जीतकर हैट्रिक बनाना आसान नहीं है। सरकार विरोधी लहर व भाजपा कार्यकर्ताओं का रुख कहीं रमन सरकार पर भारी न पड़ जाए। रमन की छवि एंटी इनकम्बैंसी फैक्टर को कितना खत्म कर पाएगी, यह भी सवाल उठने लगा है।
चुनाव घोषणा से पहले मुख्यमंत्री ने विकास यात्रा निकालकर पूरे राज्य का दौरा कर भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने का काम किया। मुख्यमंत्री ने अपने दौरे में विकास कार्यों, शिलान्यास और घोषणाओं की झड़ी लगाई। इससे राज्य में चुनावी वातावरण पूरी तरह से भाजपा के पक्ष में लगने लगा था। अब सरकार के खिलाफ नकारात्मक प्रचार शुरू हो गया है। खासकर भ्रष्टाचार व मुफ्त में बांटे गए तरह-तरह के उपहार, भाजपा के छोटे नेताओं व कार्यकर्ताओं की रहीसी लोगों को अच्छे नहीं लग रहे हैं। यह चर्चा का विषय बनता जा रहा है। फिलहाल युवा मतदाता चुप हैं। अगले चुनाव में निर्णायक होंगे।छत्तीसगढ़ मूलतः कांग्रेस का गढ़ रहा है। 2003 व 2008 में यहां भाजपा जीती। 2003 में जनता ने अजीत जोगी के आतंक व शासन करने के रवैए से नाराज होकर भाजपा को चुना। 2003 में एक ही मुद्दा था अजीत जोगी को बदलना है। 2003 में भाजपा की जीत में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्व. विद्याचरण शुक्ल का भी योगदान था। तब उन्होंने श्रीमती सोनिया गांधी व अजीत जोगी से नाराज होकर एनसीपी का दामन थाम लिया था। उन्होंने पूरे प्रदेश में एनसीपी के प्रत्याशी खड़े किए थे। यह अलग बात है कि उन्हें केवल एक सीट मिली, लेकिन करीब 7 फीसदी वोट कबाड़े। यह वोट कांग्रेस का ही था। 2008
में भाजपा डॉ. रमनसिंह की छवि और सौम्यता के कारण जीती। 2008 में भी अजीत जोगी ने मुख्यमंत्री की दावेदारी ठोंकी। यह कांग्रेस के लिए नुकसानदायक साबित हुआ। लोग रमन व जोगी की तुलना करने लगे। इसके साथ ही कांग्रेस में जमकर भीतरघात भी हुआ, जिसके चलते तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष धनेन्द्र साहू व सत्यनारायण शर्मा जैसे दिग्गज नेता हार गए। 2013 में भाजपा के पास रमन की छवि है। 10 साल राज करने के बाद भी रमन की छवि जनता के बीच अच्छी बनी हुई है। लेकिन उनके कई मंत्रियों के कामकाज को लेकर लोग नाराजगी जाहिर करते हैं।
उठने लगे हैं रमन की क्षमता पर सवाल... पढ़ें अगले पेज पर....
लोग सवाल उठाते हैं कि क्या रमन सभी 90 सीटों में अपनी छवि का लाभ भाजपा को दिला सकेंगे? रमन पर उनके ही पार्टी के लोग सवाल उठाने लगे हैं कि पांच साल में एक बार भी मंत्रिमंडल का विस्तार क्यों नहीं किया और उनके पहले कार्यकाल में जो लोग निगम-मंडल अध्यक्ष रहे, उन्हें ही दूसरे कार्यकाल में भी पद दिया गया। इनमें गृह निर्माण मंडल के अध्यक्ष सुभाष राव, खनिज निगम के अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल, पाठ्य पुस्तक निगम के अध्यक्ष अशोक शर्मा, खनिज निगम के अध्यक्ष लीलाराम भोजवानी, कृषि विकास निगम के अध्यक्ष श्याम बैस आदि हैं।
रायपुर नगर निगम के महापौर रहे सुनील सोनी को रायपुर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाए जाने के राजधानी के भाजपा नेता भी नाराज रहे। भाजपा के एक वर्ग का मानना है कि नए लोगों को मौका मिलता तो दूसरी पंक्ति के नेताओं के मन कुछ पाने की लालसा पैदा होती व चुनाव में वे काम करते। रमन ने पिछले पांच साल में मंत्रिमंडल विस्तार के नाम पर दयालदास बघेल को शामिल कर रामविचार नेताम व हेमचंद यादव के विभागों में हेरफेर किया।
रमन ने इस बार युवा वर्ग पर फोकस किया है, उन्हें लैपटॉप, शिक्षा ऋण, मुफ्त में भ्रमण कराने की योजना बनाई व लागू भी की। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल रोजगार का रहा। पुलिस व शिक्षाकर्मी कर्मी को छोड़कर अन्य नौकरियां कम ही मिलीं। इसके अलावा 70 साल तक संविदा में सरकारी नौकरी करने की छूट से भी कुछ लोग खफा हैं। लग रहा है इस चुनाव में रमन सरकार की योजनाएं व नीतियां ही भाजपा के लिए रोड़े न बन जाएं। इसका सीधा फायदा कांग्रेस को होने वाला है।
कांग्रेस मुद्दाविहीन है और नेताओं में एक जुटता नहीं है। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ में जनता के पास विकल्प नहीं हैं। स्वाभिमान मंच, सीपीआईएम व बसपा एक-एक सीट में सिमट कर रह जाने वाली हैं। वैसे भाजपा में भी गुटबाजी बहुत ज्यादा है। दुर्ग में सरोज पांडे व प्रेमप्रकाद्रा पांडे की लड़ाई सार्वजनिक हो चुकी है। सरगुजा में रामविचार नेताम व रेणुका सिंह की पटरी नहीं बैठती।
बिलासपुर में विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक व मंत्री अमर अग्रवाल एक-दूसरे को पसंद नहीं कर रहे हैं। रायपुर में मंत्री बृजमोहन अग्रवाल व राजेन्द्र मूणत में मतभेद चल रहा है। अब बृजमोहन के खिलाफ मुख्य सचिव सुनिल कुमार भी हो गए हैं। मुख्य सचिव ने बृजमोहन के विभागों की फाइलें अपने पास बुलवा ली हैं। गृहमंत्री ननकीराम कंवर का अपने ही विभाग के बड़े अफसरों से पटरी नहीं बैठ रही है।