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प्रो. पंकज कोठारी
दीदी शब्द पढ़ते या सुनते ही उन सभी सौभाग्यशालियों को, जिन्हें भगवान ने बड़ी बहन रूपी वरदान प्रदान किया है, अपने सामने बड़ी बहन का ममतामयी स्वरूप साकार होते दिखने लगता है। मन फ्लेशबैक में चला जाता है और किसी चलचित्र की भाँति दीदी के स्नेह की फुहारों से अभिसिंचित बचपन से युवावस्था तक का सफर 'फास्ट फॉरवर्ड' हो जाता है।
याद आती है दोनों हाथों को पकड़कर गोल-गोल घुमाती दीदी, जो स्वयं तो घूमने का आनंद उठाती ही है, सधे हुए हाथों से नन्ही कलाइयों को यों मजबूती से थामे रहती कि कोई सेन्ट्रीफ्यूगल फोर्स उसे छिटककर दूर न होने दे। फिरकी का मजा और सुरक्षा का अहसास दोनों साथ-साथ।
दीदी के शौक और आदतें तो बचपन में ही विरासत में मिल जाती हैं। चाहे वो शिवानी का कोई उपन्यास हो या फिर दीदी की पाठ्य पुस्तक, दीदी के साथ-साथ पढ़ना तो मानो जरूरी है। दीदी के काम में हाथ बँटाने में भी उतना ही मजा आता। एक 'रोल मॉडल' सी दीदी का अनुसरण स्वयं का कद बढ़ा हुआ महसूस कराता है। शायद दीदी के विशाल व्यक्तित्व के सामने कोई भी कभी खुद को बौना महसूस नहीं करता है।
वैसे सिर्फ अनुसरण ही नहीं, दीदी से छेड़छाड़ भी तो चलती थी। दीदी के चश्मा छिपाकर, हाथ की उँगलियाँ दिखाकर पूछना 'कितनी उँगली है?' दीदी भी मजाक को सजीव बनाने के लिए संख्या कम-ज्यादा ही बताती। और पढ़ते-पढ़ते दीदी इधर-उधर हुई तो पुस्तक कहीं छिपा देना और उनके आने पर अनभिज्ञता जाहिर करना, छेड़छाड़ का आम तरीका होता था। फिर प्यार से चपत तो खानी ही होती थी। गुरु गंभीर दीदी हँसी-मजाक से दूर रहकर भी उसमें शामिल होती थी। लाड़-प्यार के साथ अनुशासन भी होता था।
पिता के अनुशासन से युवा मन के विद्रोह की अग्नि को दीदी अपने स्नेह की शीतलता से शांत तो करती ही, अनुशासन भंग भी न होने देतीं। अनुशासन के पीछे निहित भलाई को भली प्रकार समझाती दीदी-प्रेरणा का स्रोत बनी रहतीं। ससुराल जाती दीदी जहाँ रूलाई का सबब बनती तो उनका आना एक उत्सव जैसा होता। चाहे ब्याह को कितने बरस हो गए हों, दीदी के मायके आने पर उत्साह-उमंग कभी कम नहीं होता है।
युवावस्था में तो दीदी का होना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। माता-पिता से दिल की बात कहने का साहस जहाँ अक्सर जुट नहीं पाता वहीं दीदी से हर बात खुलकर हो जाती- चाहे ब्याह-शादी का मामला हो या करियर का। हर मामले में अपनी समझबूझ से दोनों को संतुष्ट करके मिला देना दीदी के बाएँ हाथ का खेल होता है।
प्रसन्नता का प्रत्येक पल जहाँ दीदी के साथ बाँटना तयशुदा होता है वहीं तनाव व परेशानी के अँधेरे में दीदी सदैव रोशनी की किरण होती है। जब कोई मार्ग न सूझे तो दीदी रूपी दीपिका ही प्रकाश देती है। जब ज्ञान का स्रोत सूखता दिखाई दे तो दीदी विद्या का वरदान होती है। बेजान हो पड़े रहने पर दीदी मानो विद्युत का संचार हो जाती है। अपनी साधना से दीदी हमारे जीवन को महकाती है।