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रिश्ते नहीं बदलते

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- स्मृति जोश

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मानवीय उलझनों के बेशुमार जंगलों से गुजरते हुए एक न एक दिन वह बेचैनी भरा एकांत हम सभी की जिंदगी में आता है, जब हम खामोशी से मन की मिट्‍टी कुरेदते हुए सोचते हैं उन रिश्तों के बारे में, जो अचानक बदल जाते हैं। वे रिश्ते जो पर्वत की तरह अविचल खड़े थे, हमारी पृष्ठभूमि में अटल विश्वास बनकर दिलों को आश्वस्त करते हुए, फिर यकायक ये हुआ कि किसी ने कुछ नहीं किया, कुछ नहीं कहा और रिश्तों के राजमहल बिखरते-बिछड़ते चले गए! संदेह की परतें चढ़ने लगती हैं रिश्तों पर, रिश्तेदारों पर और अंतत: अपने आप पर।

कहाँ, किससे कौन-सी भूल हुई? हमने उन्हें समझने में भूल की या उन्होंने हमें पहचानने में? हम नहीं बदले, वे नहीं बदले, फिर ऐसा कौन सा कहर टूट पड़ा कि फासले बढ़ते गए और हम खड़े देखते रहे। हमारे सामने सब कुछ क्रमश: बिखरता, ढहता, उजड़ता, बदलता चला गया और हम कुछ न कर सके।

जब भी भावुक मन स्मृतियों के झुरमुट हिलाते हुए रिश्तों को ढूँढता है तो उनमें से सुवासित सुगंध भी उठती है और उबकाती व्यग्रता भी। कभी उन झुरमुटों में कचनार दमकते हैं तो कभी नागफनी के काँटे भी चुभते हैं। कभी कजरारी आँखों के महकते सपने दिखाई देते हैं तो कभी सूजी हुई आँखों से ढुलकते हुए अरमान।

कभी सम्मिलित ठहाकों और चुहलबाजियों का नमकीन शोर कानों में गूँजता है तो कभी व्यंग्य और कटाक्ष का तीखा स्वर कानों के रास्ते से होता हुआ दिल को छील जाता है।
  कहाँ, किससे कौन-सी भूल हुई? हमने उन्हें समझने में भूल की या उन्होंने हमें पहचानने में? हम नहीं बदले, वे नहीं बदले, फिर ऐसा कौन सा कहर टूट पड़ा कि फासले बढ़ते गए और हम खड़े देखते रहे। हमारे सामने सब कुछ क्रमश: बिखरता, ढहता, उजड़ता, बदलता चला गया।      


कभी किसी रिश्ते को महसूस करते हुए कड़वे चिरायते सी कटुता गले से मुँह तक आ जाती है तो कभी चमचम-सी मिठास हाथ-पैरों के नाखूनों तक में केसरिया सनसनी मचा देती हैं। कभी किसी रिश्ते की मोहक स्मृति से मन के आँगन में सुर्ख गुलाब की कोमल पंखुरियाँ झरने लगती हैं तो कभी टूटे हुए शीशे की किरचें बरसने लगती हैं।

अकसर जब रिश्तों में कड़वाहट आ जाती है तब एक लंबा अरसा गुजरने के बाद नफरत और क्रोध का उद्‍दाम आवेग सुस्थिर होने लगता है। भावविह्लल मन फिर छटपटाने लगता है उन्हीं छूटे हुए रिश्तों को पुन: पाने के लिए। दिल चाहता है टूट जाएँ ये तटबंध, किनारे और बिखर जाएँ भावनाओं की उफनती लहरें, बढ़ जाए आत्मीयता का ज्वार और फूट पड़े स्नेह के कलकल झरने। किंतु कहीं मन के भीतर ही बादल टकराते हैं पहाड़ों से और याद आ जाता है वह कारण जिसकी वजह से रिश्तों में दूरियाँ कायम हुई थी।

तब रिश्तों से मिल जाने की यही छटपटाहट अहं में परिवर्तित हो जाती है और हम मन मसोसकर रह जाते हैं, व्यथा के सुरमई बादल रूक-रूककर बरसने लगते हैं।

रिश्ते जब कच्चे होते हैं तब वे खट्‍टे लगते हैं और जब पक जाते हैं तो मीठे। लेकिन मीठे फलों को ही कीड़ा भी लगता है। रिश्तों के मामलों में इसी सावधानी की आवश्यकता है। इन्हें इतने मीठे होने ही न दीजिए कि इनमें कीड़ा लगे लेकिन इतने कच्चे भी न रहने दीजिए कि जब साथ हो, तब अंतर में खटास उमड़ती रहे। जब रिश्ते निर्मित होते हैं तब ही मन को सचेत और सतर्क कर देना चाहिए कि अनिवार्य सीमा में ही रिश्तों का ग्राफ बढ़ेगा और बढ़ते हुए भी परस्पर आवश्यक दूरियाँ बनाए रखेगा।

वास्तव में रिश्ते कभी खत्म नहीं होते। खत्म तो रिश्तों के नाम होते हैं। रिश्ते टूटते हैं, बिगड़ते हैं, छूटते हैं, खराब होते हैं, लेकिन ‍अमिट होते हैं। कहीं न कहीं आत्मा की गहरी जमीन में खंडित अंश शेष रहता है। जो पुनर्जीवन के लिए तड़पता है, किंतु जिनसे रिश्ता टूटा है क्या उनमें भी कहीं कोई टुकड़ा बचा है? यह जान लेना जरूरी है। हो सकता है कि रिश्ते को जड़ से उखाड़ देने की जिद में व्यक्ति जीवन से ही उखड़ जाए और हम कोरी भावुकता को पोषित करते हुए रिश्ते के पुन: उग आने का इंतजार करते रहें।

मैंने पढ़ा है कहीं पर कि जीवन से उखड़ा व्यक्ति आत्म निर्वासित होकर अपने ही विच्छिन्न मानस में रिश्तों का अर्थ ढूँढता रह जाता है। हर व्यक्ति का अपना अलग मनोविज्ञान होता है और हर व्यक्ति उसी मनोविज्ञान को अपनी नियति मान बैठता है। फलस्वरूप हम अपनी ही वजहों से अपने आपमें छटपटाते रह जाते हैं।

इस दुनिया में जब नवजात शिशु आँखें खोलता है तब कई मूल्यवान और पवित्र रिश्ते उसे बने बनाए मिलते हैं माँ, पिता, भाई, बहन, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, मौसी और चचेरे, ममेरे, मौसेरे भाई-बह-भाभी आदि। बड़े होने पर कुछ रिश्ते उसे बनाने पड़ते हैं और कुछ समाज द्वारा बना दिए जाते हैं। इनमें कई रिश्ते ऐसे होते हैं जो बनते हैं, दिखते हैं पर होते नहीं। युवावस्था में रिश्तों की दुनिया ही निराली होती हैं।

जब रिश्ते बडे प्रिय होते हैं। कितने दिलकश और संजीदा होते हैं, पर उनके नाम नहीं होते हैं। ये रिश्ते अनाम ही खूबसूरत लगते हैं। मन इन्हें कोई नाम नहीं देना चाहता पर देना पड़ता है क्योंकि यह वह समाज है जहाँ यदि रिश्तों को कायम रखना है तो समाज के समक्ष उनका खुलासा करना अनिवार्य है। सो नाम थोपना ही पड़ता है लेकिन विडंबना तो यह कि रिश्ते को नाम मिलते ही रिश्ता बिखरने लगता है, जब तक अनाम था, तब तक वास्तव में रिश्ता था, लेकिन नामधारी होते ही बस रिश्ते का नाम धरा रह जाता है, रिश्ता पता नहीं कहाँ चला जाता है।

कुछ रिश्ते एक मधुर मुस्कान से निर्मित होते हैं और अश्रुओं की अविरल धारा में प्रवाहित हो जाते हैं। कुछ ऐसे जिनकी हर बात दिल को छू जाती हैं। फिर वहीं कुछ ऐसा कर जाते हैं कि ‍दिल छिल जाता है। फिर भी रिश्ता कुछ ऐसा होता है कि वे याद आते हैं, बहुत याद आते हैं, कुछ इस तरह कि,

दिल में रहने वाले, दिल से नहीं निकलते बदले हजार मौसम, रिश्ते नहीं बदलते।-
जो रिश्ते हमें विरासत में मिलते हैं वे जब टूटते हैं तो बहुत गहरी पीड़ा होती है, क्योंकि हमने उन्हें बनाया नहीं था, वे हमें बने हुए मिले थे। लेकिन उससे भी गहरी वेदना तब होती है जब हमारे द्वारा बनाए गए रिश्ते टूटते हैं। यहाँ कोई मजबूरी नहीं थी रिश्तों को बनाने की, निभाने की। बहुत जाँच-परखकर ठोक-बजाकर रिश्ता बनाया, फिर भी टूट गया! यहाँ पीड़क तथ्य यह है कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी सोचने-समझने और निर्णय लेने की क्षमता के प्रति शंकित हो उठता है कि हमने ही रिश्ता गलत बनाया था, हमारी ही भूल है। ऐसी स्थिति में पीड़ित व्यक्ति को उभारना बहुत मुश्किल होता है।

तुम मसर्रत (निकटता) का कहो या इसे गम का रिश्ता कहते हैं प्यार का रिश्ता है जनम का रिश्ता है जनम का जो यह रिश्ता, तो बदलता क्यों है?

सचाई तो यह है, जो आज से पहले भी कई बार दोहराई जा चुकी है, आज भी कही जा रही है, भविष्य में भी कही जाती रहेगी कि रिश्ते बनाना जितना आसान हैं, उन्हें निभाना उतना ही मुश्किल। रिश्ते को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने के लिए जहाँ एक ओर हृदय की गहनता की आवश्यकता है, वहीं मस्तिष्क की तीक्ष्णता भी नितांत जरूरी है।

रिश्तों में निकटता और गहराई तो रहे, लेकिन आवश्यक दूरियाँ और गोपनीयता भी बरकरार रहे। मिठास की भी एक सुनिश्चित परिधि रहे, क्योंकि मीठे फलों में ही....। समय-समय पर रिश्तों को मांजिए, चमकाइए और हो सके तो उन पर नई पालिश चढ़ाइए। परस्पर रिश्ते यदि सुसंस्कृत, मर्यादित और अनुशासित रहें तो निश्चय ही वे सुगठित और स्वस्थ रहकर अपनी ताजगी और मधुरता को बनाए रखेंगे। अंत इस खूबसूरत भावुक कविता के साथ कि

रोक रखती हूँ/छलकते आँसुओं को/ जब मिलोगे करूँगी/अर्पित तुम्हें ही/आँसुओं का अर्ध्य/शीतल हेम-सा/याद रखना/बस यही रिश्ता अपना/जोड़ता है/फूल से मृदु एक धागा प्रेम का। मैं नहीं जानती यह आकर्षक कविता किस संवेदनशील कवयित्री की है, लेकिन अभिव्यक्ति का इतना सौम्य, सशक्त और सुंदर अंदाज ही रिश्ते की महत्ता दर्शाने में सक्षम है। क्योंकि रिश्ते का रूपांतर, छल नहीं हो सकता, यदि हुआ है तो समझिए वह रिश्ता ही नहीं था।

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