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रिश्तों की घनी छांव तले...

ओमप्रकाश चौधरी

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हमें फॉलो करें डोर रिश्तों की
रिश्ते तभी स्वस्थ बने रह सकते हैं जब अपेक्षाएं न्यूनतम और वाजिब हों। अन्यथा रिश्तों में दरार आने में देर नहीं लगती फिर वह रिश्ता कितना ही मधुर और घनिष्ठ क्यों न हो। रिश्तों के इस चक्रव्यूह को समझिए और कुछ ऐसा करिए कि इस चक्रव्यूह में फंसने की बजाय आप रिश्तों का आनंद लेते रहें, यही रिश्ते निभाने की असली कला है।


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कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। और सामाजिक है तो रिश्ते भी होंगे ही। वैसे तो प्रेम एक ऐसी भावना है जो मनुष्य तो मनुष्य, मूक पशुओं तक से रिश्ता जोड़ देती है। रिश्ते भी कई प्रकार के होते हैं। इनमें सबसे बड़ा रिश्ता है परिवार का जो आपको कई-कई रिश्तों में बांध देता है।

एक बच्चा जब इस दुनिया में आता है तो वह किसी को मां किसी को पिता, भाई, बहन, चाचा, मामा, दादा-दादी या नाना-नानी बनाता है। कुछ रिश्ते केवल कामकाजी होते हैं, और कुछ ऐसे कि जिनका कोई नाम नहीं होता पर वे नामधारी रिश्तों से ज्यादा पक्के होते हैं।

कुछ रिश्ते हमें जन्म से मिलते हैं और कुछ हम बनाते हैं, जिनमें सबसे ज्यादा अहम होता है पति-पत्नी का रिश्ता जो कहा जाता है कि सात जन्मों का होता है। कुछ रिश्ते मुंहबोले होते हैं। कई बार रिश्ते ऐसे मोड़ पर आ जाते हैं कि उन्हें निभाना भी भारी पड़ने लगता है और ऐसे ही किसी रिश्ते के लिए किसी कवि ने कहा है 'जिस अफसाने को अंजाम तक लाना हो मुश्किल उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।' कुछ रिश्ते केवल विश्वास से बनते हैं, और जैसे ही विश्वास टूटा, रिश्ते भी बिखर जाते हैं। कुल मिलाकर रिश्ते एक ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं जिसमें हम में से हर एक कभी न कभी उलझता ही है।

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एक समय था जब लोग रिश्तों पर जान छिड़कते थे, वैसे लोग आज भी हैं। लेकिन अब रिश्तों की परिभाषा बदलने लगी है। आज रिश्ते पैसे की तराजू पर भी तुलते हैं। उपहार देने की परंपरा ने आज व्यावसायिक रूप ले लिया है। पहले उपहार रिश्तों को नई गरमाहट से भर देते थे, पर आज कई बार रिश्तों को तोड़ने के कगार पर पहुंचा देते हैं, कारण वही व्यावसायिकता। आज हम उपहार देते समय रिश्तों को नहीं सामने वाले द्वारा पूर्व में दिए गए उपहार के मूल्य को प्राथमिकता देते हैं। रिश्तों का भी अपना मनोविज्ञान होता है, इतिहास भूगोल होता है।

रिश्ते हमें पूर्ण बनाते हैं हमारे जीवन में नए-नए रंग भरते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि चाहे रिश्तों के बीच की कड़ी माता, पिता, भाई, बहन, बेटी या पत्नी कोई भी हो, यदि टूट भी जाती है तब भी रिश्तों को ताउम्र निभाते हैं। उनमें हर समय नई ऊर्जा भरने में लगे रहते हैं। तब ऐसे लोगों पर गुमान होता है उन पर प्यार आता है, उन्हें सलाम करने को मन करता है।

लेकिन इस घोर व्यावसायिकता के युग में रिश्ते अपना अर्थ खोते जा रहे हैं। कई लोग अपने ही अजीज रिश्तेदारों से तभी मिलेंगे या फोन करेंगे जब उन्हें उनसे कोई काम पड़ जाए। पहले मिलनसार होना या रिश्ते निभाना एक खूबी मानी जाती थी, समाज में ऐसे लोगों को बड़े आदर से देखा जाता था, पर आज काम पड़े और पूछ-परख हो तो इसे व्यावहारिकता माना जाता है। कहा जाता है वह आदमी बड़ा प्रैक्टिकल है, इमोशनलफुल नहीं।

कुछ रिश्ते केवल इसलिए बनाए जाते हैं कि काम निकलवाना है। इन रिश्तों में चापलूसी, लेन-देन का कर्म ही प्रधान होता है और काम निकला नहीं कि रात गई बात गई की तर्ज पर रिश्तों पर पूर्णविराम और ऐसा अक्सर वही व्यक्ति करता है जिसके लिए रिश्ते केवल सफलता प्राप्त करने का जरिया होते हैं।

रिश्ते की अहमियत कोई मां से पूछे जिसके लिए अपने बच्चे से बड़ा रिश्ता कोई नहीं है, और इसीलिए कहा जाता है कि औरत के लिए मां बनने से बड़ा सुख कोई दूसरा नहीं। किसी बहन से पूछिए भाई का रिश्ता क्या होता है, जब रक्षाबंधन आता है। रिश्ते और अपेक्षा का साथ चोली दामन का है।

याद रखिए रिश्ते तभी स्वस्थ बने रह सकते हैं जब अपेक्षाएं न्यूनतम और वाजिब हों। अन्यथा रिश्तों में दरार आने में देर नहीं लगती फिर वह रिश्ता कितना ही मधुर और घनिष्ठ क्यों न हो। तो रिश्तों के इस चक्रव्यूह को समझिए और कुछ ऐसा करिए कि इस चक्रव्यूह में फंसने की बजाय आप रिश्तों का आनंद लेते रहें, यही रिश्ते निभाने की असली कला है।

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