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सास-ससुर का बहू पर कसता शिकंजा

हमें फॉलो करें सास-ससुर का बहू पर कसता शिकंजा
- मृणालिनी

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रेशमी को अपने बच्चों का दाखिला एक अच्छे स्कूल में करवाना है, परंतु उसकी पढ़ी-लिखी सास उसे ऐसा नहीं करने देती है, ऊपर से बार-बार सबके सामने उसे ताने भी मारती है, 'अल्ट्रामॉडर्न' होने के। सुषमा ने शादी की पहली वर्षगाँठ पर एक 'प्रोग्राम' केवल अपने लिए बनाया। पति ने भी हामी दे दी, लेकिन जैसे ही सास-ससुर को पता चला, उन्होंने तुरंत फोन कर दोनों को अपने पास बुलवा लिया।

सास का कहना था- 'तुम कौन होती हो अपनी शादी की सालगिरह मनाने का डिसीजन लेने वाली? 'बहुत दिनों बाद मंजुला को पति के साथ कश्मीर घूमने जाने का मौका मिला। उत्साह से तैयारी कर ही रही थी कि ससुरजी का फोन आया- 'मैं और तुम्हारी मम्मीजी भी साथ चल रहे हैं। हमारे हिसाब से हर चीज की तैयारी करना।' कश्मीर में मंजुला के पति व ससुर तफरीह कर रहे थे और वह खुद कई रोगों की शिकार अपनी सास के साथ होटल के बंद कमरे में बैठी थी।

मेरी सहेली बबली की शादी एक सभ्य उच्च शिक्षित परिवार में हुई, जो स्वयं को स्वतंत्र विचारों का हिमायती मानता है। उसका पति पत्नी को घुमाने ले जाने की मात्र योजना बना सकता है, उसे क्रियान्वित करने का अधिकार बबली के सास-ससुर के पास है। बबली को सूट पहनने की स्वतंत्रता है, परंतु स्वयं की पसंद का नहीं।

मोहिनी का ऑफिसर के रूप में दबंग पति स्वेच्छा से उसे एक फिल्म भी नहीं दिखा सकता, जबकि एक अनपढ़ मजदूर अपनी पत्नी को मेला घुमाने का साहस रखता है। मोहिनी को तो अपने उच्च शिक्षित ससुर को मोबाइल फोन पर पल-पल की बुलेटिन देनी होती है। जैसे सुबह उठने की, पूजा की, क्या बनाया, कौन-सी साड़ी पहनी, कहाँ घूमने गई, रात में कब सोई आदि-आदि पूरे दिन का सिलसिलेवार ब्यौरा देना होता है।

ऐसे उच्च शिक्षित ससुर से कामवाली बाई गायत्री का अनपढ़ ससुर उसे अधिक स्वतंत्रता देता है। सुबह से वह बरामदे में हुक्का पीता है और
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बहू को घर में अपने हिसाब से काम करने व जीने की स्वतंत्रता देता है। घर में प्रवेश करने से पहले बहू को अपनी प्रविष्टि की सूचना देता है। यह सब देख-सुनकर मेरे मस्तिष्क में एक प्रश्न कौंधता है। आज की नारी स्वतंत्र हुई या आधुनिकता के नाम पर सभ्य परतंत्रता की बेड़ियों में और अधिक जकड़ गई?

अब रीना की ही कहानी जानें। शादी के पंद्रह दिनों पश्चात अचानक बुखार आ जाने पर उसने अपनी अहसनीय पीड़ा की खबर पति को फोन पर दी। तब पति ने सांत्वना के दो शब्द या तबीयत पूछने की बजाए यह कहकर फोन काट दिया कि इसकी सूचना पहले मेरे माता-पिता को दो। जाहिर है पति के माता-पिता ने ऐसा वातावरण बना रखा था। ऐसे घरों में सास-ससुर बहू को 'बेटी' कहकर पुकारते मात्र हैं, स्वीकारते नहीं। ऐसे परिवारों में स्वतंत्रता की परिभाषा 'बहू' व 'बेटी' के लिए भिन्न होती है, जहाँ बहू की पीड़ा से ज्यादा अपने अहम को तरजीह दी जाती है।

उच्च शिक्षित उच्च पद पर आसीन 37 साल की उम्र की भावना का पति आज तक अपना स्वयं का वजूद परिवार में नहीं बना सका। वह आज भी माता-पिता से ऑक्सीजन लेकर जिंदा है। भले ही फिर इससे पत्नी की कोमल भावनाएँ आहत हों। स्वयं निर्णय लेने में असमर्थ है। परिणाम भावना को बात-बेबात सास-ससुर के सॉफेस्टिकेटेड ताने सुनने को मिलते हैं, पर उसका पति इसमें इंटरफियर नहीं करता।

ऐसे परिवारों में बहू चहारदीवारी में कैद मूक-बधिर पँछी की तरह है, जिसकी अपने ही पति के साथ घूमने-फिरने, उठने-बैठने की स्वतंत्रता तक पर सासुजी व ससुरजी का पहरा रहता है। आज इस प्रकार का सास-ससुर का रवैया नारी की स्वतंत्रता पर सोचने हेतु मजबूर करता है। अपने पुत्र के छिन जाने के भय मात्र से बहू पर अविश्वास कर उसे पराया मान प्रताड़ित करना सरासर अनुचित व अन्यायपूर्ण है। फिर भी तथाकथित सभ्य समाज के बड़े घरों तक में ऐसे दृश्य आम हैं।

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