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पिता पर कविता : पिता, जुलाहा...रखवाला

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रोचिका शर्मा ,चेन्नई
 
खिल गई है मुस्कुराहट, उसके चेहरे पर आया है नूर
निहार-निहार चूमे माथा,लहर खुशी की छाया है सुरूर
 
गर्व से फूल गया है सीना ,बना है वह आज पिता 
अंश को अपने गोद में लेकर, फूला न समाया, जग जीता
सपने नए लगा है संजोने, पाया है सुख स्वर्ग समान 
तिनका-तिनका जोड़-जोड़, करने लगा नीड़ निर्माण 
 
बीमा, बचत, बैंकों  में खाते, योजना हुई नई तैयार
खेल-खिलौने,घोड़ा-गाड़ी, खुशियां मिली उसे अपार
 
सांझ ढले जब काम से आता ,लंबे-लंबे डग भरता
ममता, प्यार  हृदय में रखता ,जगजाहिर नहीं करता 
 
कंधों पर बैठा वो खेलता, कभी घोड़ा वह बन जाता 
हं सी, ठिठोली, रूठ ,मना कर, असीम सुख वह पाता
 
ढलने लगी है उम्र भी अब तो, अंश भी होने लगा जवां
पैरों के छाले नहीं देखता,लेता चैन नहीं अवकाश  
 
बच्चों की खुशियों की खातिर, हर तकलीफ़ रहा है झेल 
जूतों का अपने छेद छुपाता, मोटर गाड़ी का तालमेल
 
अनंत प्यार का सागर है यह,परिंदे का खुला आसमान 
अडिग हिमालय खड़ा हो जैसे,पिघले जैसे बर्फ समान 
 
 बड़ा अनोखा है ये जुलाहा, बुन रहा तागों को जोड़
सूत से नाते बांध रहा यह, लगा रहा दुनिया से होड़
 
होने लगी है हालत जर-जर, हिम्मत फिर भी रहा न हार
बेटी की शादी, बेटे का काम ,करने लग रहा जुगाड़
 
दर्द से कंधे लगे हैं झुकने,रीढ़ भी देने लगी जवाब 
खुश है रहता अपनी धुन में, देख संतान को कामयाब 
 
बेटी अब हो गयी पराई, बेटा भी परदेस गया
बाट जोहता रहता हर दिन,आएगा संदेस नया
 
खाली हाथ अब जेब भी खाली, फिर भी सबसे मतवाला
बन गया है धन्ना सेठ, ये जुलाहा, रखवाला...    
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