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एक औरत की नोटबुक से : सुधा अरोड़ा

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सुधा अरोड़ा

चुप्पी की हिंसा 
 एक पति ही जानता है कि अपनी पत्नी को पीड़ा देने का सबसे बेहतरीन तरीका या नुस्खा क्या है। कितने नुकीले या कितने भोथरे औजार, किस तरह से उसे इस्तेमाल करने हैं। वह जानता है कि अपनी पत्नी पर शारीरिक बल का इस्तेमाल कर या उसे चाँटा मार कर वह उतनी तकलीफ नहीं पहुँचा सकता, जितनी उसकी उपेक्षा या अवहेलना करके। 
 
वह अपनी संभ्रांतता का मुखौटा चढ़ाकर एक साधुनुमा तटस्थता अपना लेता है और ऐसे रहता है, जैसे उस घर में बच्चे हैं, बुजुर्ग हैं, आने-जाने वाले मेहमान हैं, नहीं है तो सिर्फ उसकी पत्नी।
 
 पत्नी की 'उपस्थिति' या उसके 'अस्तित्व' को पूरी तरह योजनाबद्ध तरीके से नकारता हुआ वह अपनी पत्नी को अवहेलना के धीमे जहर से खत्म करना चाहता है। 
 
'संवादहीनता' की स्थिति से पैदा हुई इस 'स्लो डेथ' को जब तक पत्नी पहचानने की कोशिश करती है, वह भीतर से पूरी तरह टूट चुकी होती है। बहरहाल, बाहर से देखने पर यह एक हद तक आकारहीन स्थिति लग सकती है और इसे वही औरतें बखूबी समझ सकती हैं जिन्होंने इस 'धीमी मौत' को अपने भीतर घटते हुए देखा है, पहचाना है।   
 
एक औरत के लिए ज्यादा तकलीफदेह, लाइलाज और असमंजसवाली स्थिति मानसिक प्रताड़ना है, जिसका जिक्र तक नहीं किया जाता। शरीर पर लाल-नीले निशान या होंठों पर या आँखों के नीचे कटा हुआ घाव तो किसी मलहम या दवा से आखिर ठीक हो ही जाता है, पर शाब्दिक तिरस्कार, उलाहने, व्यंग्यबाण चला कर या संवादहीनता और निरंतर उपेक्षा से की गई चोट जैसा घाव मन पर बनाती है, वह शरीर पर हुए घाव से ज्यादा गहरा होता है। इस अदृश्य चोट को भरने में कहीं ज्यादा वक्त लग जाता है।    
 
अपने साथी की निर्मम चुप्पी और अवहेलनापूर्ण संवादहीनता भी हिंसा का ही एक प्रकार है . और चूँकि शरीर पर इसके निशान दिखाई नहीं देते इसलिए यह भीतर ही भीतर देह को अमूर्त बीमारियों से लैस कर देती है। पति की मारक चुप्पी हमें शिकायत करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं लगते। 

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ऐसी अमूर्त तकलीफें हमारे सरोकार का मुद्दा इसलिए नहीं बनतीं क्योंकि मानसिक यातना की शिकार औरत जब खुद ही मरते दम तक इसकी शिनाख्त नहीं कर पाती तो उसके बिना कहे कोई दूसरा व्यक्ति उसके मन के भीतर चलते ऊहापोह को कैसे पहचान सकता है। 
 
और कभी कोई औरत यदि पति के तीखे स्वभाव या चुप्पे आचरण के प्रति अगर अपना प्रतिरोध जताती भी है तो औरत को परेशान देख कर घर परिवार के लोग भी समझ नहीं पाते और यही कहते हैं कि आखिर ऐसा उसने किया ही क्या है या क्यों राई का पहाड़ बनाया जा रहा है। पति चूँकि मारपीट नहीं करता इसलिए अपनी निगाह में भी वह एक बेहद शालीन, सभ्य, सुसंस्कृत इंसान बना रहता है.... औरों को भी उसके व्यवहार में कहीं कोई असामान्यता दिखाई नहीं देती। चूँकि पति पत्नी पर हाथ नहीं उठाता, उसके शरीर पर चोट के कोई निशान नहीं छोड़ता, इसलिए परिवार के अन्य लोग भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि वह कुछ गलत कर रहा है।
 
ऐसे पुरुष दोहरी छवि रखते हैं -एक वह, जो उनकी सार्वजनिक छवि है जिसमें वे बेहद खुशमिजाज, जिंदादिल, मिलनसार, बेलौस ठहाके लगाने वाले इनसान दिखाई देते हैं। आपका पति आपसे बात नहीं करता जबकि अपने अन्य स्त्री या पुरुष मित्रों के बीच वह अपने उन्मुक्त, मिलनसार और जिंदादिल स्वभाव के लिए खूब सराहा जाता है। उसका जो चेहरा घर की चहारदीवारी के भीतर है, वह इस बाहरी चेहरे से काफी अलग है, इसलिए पत्नी हमेशा एक दुविधा की स्थिति में रहती है क्योंकि वह एक साथ एक ही व्यक्ति के दो अलग अलग चेहरों से जूझ रही होती है। इनके बाहरी रूप को जाननेवाले कभी विश्वास ही नहीं करेंगे कि इनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा ऐसा भी है जो बहुत निर्मम, कठोर और अमानवीयता को छूने की हद तक क्रूर भी होता है।     
 
जहाँ शारीरिक हिंसा निम्न और निम्न मध्य वर्ग की औरतों की समस्या है, मानसिक यातना उच्च मध्य वर्ग और सुसंस्कृत, अभिजात, शालीन दिखने वाले प्रगतिशील वर्ग का हथियार है। निम्न और निम्न मध्य वर्ग का पुरुष इतना शातिर और समझदार नहीं होता। वह गुस्सा आते ही आगा पीछा नहीं देखता और झट से हाथ उठा कर हिंसक हो जाता है। इस हिंसा के निशान शरीर पर दिखते हैं, इसलिए इसे ले कर निर्णय लेना आसान हो जाता है। जबकि नामालूम और सूक्ष्म किस्म की मानसिक प्रताड़ना आम तौर पर आर्थिक रूप से संपन्न, संभ्रांत, अभिजात पुरुष या फिर सामाजिक फलक पर प्रतिष्ठाप्राप्त बुद्धिजीवी पुरुष देते हैं।
 
अभिजात्य वर्ग का यह समझदार और ऊँचे रुतबे का पति शादी के बाद अपनी पत्नी की कलात्मक अभिरुचि और सृजनात्मकता को कोई महत्त्व न देकर, शातिर तरीके से उसकी नफासत और रचनात्मकता को तहस नहस करता है। उसे यह भी सलीके से जता दिया जाता है कि उससे शादी कर उसके अफसर पति ने उस पर एहसान किया है। इसके बाद उसे व्यक्तित्वविहीन औरत में बदलकर एक असंपृक्त रिश्ता कायम रख धीमी मौत की ओर उसे धकेला जाता है।    
 
पत्नी को चाँटा मारना या गाली गलौज करना, हाथ मरोड़ देना हिंसा में गिना जाएगा, इसलिए एक शालीन, संभ्रांत पति गलती से भी ऐसी क्रियाएँ नहीं करता... वह इनसे बेहतर, अदृश्य लेकिन पैने औजारों का इस्तेमाल करता है - जिसमें संवादहीनता या चुप्पी की हिंसा प्रमुख है।
 
एक पढ़ी लिखी समझदार औरत को ख़ामोशी से काट-छील कर अपने से निचले दर्जे पर पहुँचाने का, बार बार उसकी अक्ल और पोशाक पर उसके बेवकूफ, ईडियट, मूर्ख, कूढ़मगज, होने के चमकदार तमगे टाँग कर उसके अस्तितव को कुंद करने का, त्रासद आनंद किसी भी शालीन दिखनेवाले पति के खाते में दर्ज किया जा सकता है।  
 
सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा जयसिंह के अनुसार “हिंसा का एक प्रकार यह भी है कि पति पत्नी को सेक्स से वंचित रखता है। शादीशुदा औरतों की अलिखित आचार संहिता के अनुसार औरतें सेक्स की माँग नहीं करतीं, सिर्फ सेक्स की स्वीकृति देती हैं। कानून की अपनी सीमाएँ हैं और दुनिया का कोई भी कानून सेक्स करने को बाध्य नहीं कर सकता और न ही इसे हिंसा के किसी प्रकार में गिनता है।” ('द राइट टु लिव विथ डिग्निटी' - द हिंदू, 30 मार्च, 2008)     
 
मानसिक यातना से ग्रस्त इन संबंधों में औरत लगातार एक लंबे अरसे तक एक अनचीन्हे तनाव से त्रस्त रह कर अपने शरीर को बीमारियों की शरणस्थली बना लेती है और फिर डॉक्टरों के पास जाना ही एकमात्र विकल्प रह जाता है - बगैर यह जाने कि इन बीमारियों का इलाज डॉक्टरों के पास तो है ही नहीं।
 
विडंबना यह है कि या तो औरत डॉक्टरों के पास जाती है या मनोचिकित्सक के पास जाती है क्योंकि वह इस हद तक निराशा के गर्त में चली जाती है कि पति की नाखुशी की वजह उसे अपनी शारीरिक संरचना और बनावट में ही खामी का परिणाम लगती है।
 
 वह यह कतई समझ नहीं पाती कि इसके सूत्र कहीं और हैं और इसका इलाज न डॉक्टरों के पास है, न मनोचिकित्सकों के पास। इन स्थितियों से उसे उबारना सिर्फ उसके पति के हाथ में है - क्योंकि इस बीमारी के कारण तो वहीँ जड़ें जमाए बैठे हैं।       
 
घरेलू हिंसा से त्रस्त महिला को रास्ता सुझाने से कहीं ज्यादा मुश्किल है मानसिक यातना झेल रही महिलाओं को समझाना.... क्योंकि इस स्थिति में पति बहुत समझदार-शालीन दिखता है, उसके अंदर बैठे हुए उस पुरुष से साक्षात्कार हो ही नहीं पाता जिसे वह महिला घर में अकेले में झेल रही है... जो लगातार उसे बौना बना रहा है और उसके व्यक्तित्व को, उसकी प्रतिभा को कुचल कर उसे व्यक्तित्वविहीन बना रहा है।     
 
अव्वल तो सलाह केंद्रों में बुलाने पर भी ऐसे पुरुष कभी नहीं आते.... आते हैं तो अपना बाहरी सामाजिक संभ्रांत मुखौटा ओढ़ कर आते हैं। एक ही साँस में या तो वे अपनी पत्नी के अवगुणों की फेहरिस्त गिना देते हैं और काउन्सिलर के सामने कहते हैं कि बदलने की जरूरत इसे है, मुझे नहीं..... यह खुश रहना ही नहीं जानती, मैं तो अपनी तरफ से इसे खुश रखने की पूरी कोशिश करता हूँ। या फिर मसीहाई अंदाज में पूरी शालीनता और संभ्रांतता से खामोश रह कर यह जताते हैं कि वे वैसे बिल्कुल नहीं है जैसी तस्वीर उनकी पत्नी ने उनके बारे में प्रस्तुत की है।
 
जबकि वास्तविकता में यह संपन्न, संभ्रांत पुरुष जीवन भर अपनी पत्नी को अपने कर्णभेदी शब्द बाणों से या संवादहीनता की उपेक्षा से बेधता है..... और उसके व्यक्तित्व की किरचें किरचें बिखेर कर एक त्रासजन्य आनंद (सैडिस्टिक प्लेजर) पाता है।
 
स्त्री स्वभाव की एक मूलभूत त्रासदी यह भी है कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर पत्नी का भी भावात्मक कोना उतना ही वल्नरेबल, अशक्त और अपेक्षाएँ रखनेवाला होता है... जितना एक आश्रित घरेलू गृहिणी का। ग्रामीण, अशिक्षित, परंपरावादी औरत हो या पढ़ी लिखी-नौकरी पेशा.... सारी त्रासद स्थितियाँ उस भावात्मक कोने की वजह से पैदा होती हैं जो प्रेम पाने की जगह अपने पुरुष से निरंतर चोट खाता रहता है। 
 
इसके बावजूद एक पत्नी भावात्मक लगाव से ताउम्र मुक्त नहीं हो पाती।
 
कुछ पौधे ऐसे होते हैं - देखने में बहुत नाजुक, मुलायम से पत्तोंवाले, पर उनकी टहनियों को कहीं से भी काट दो, उन कटी हुई जगहों से ही फिर हरे हरे नाजुक से पत्ते निकल आते हैं। औरतें भी ऐसी ही होती हैं। कहीं से भी काट दो, छील दो, फिर उसी छिली हुई जगह पर कोमल भीगी सी नमी अंकुरित होने लगती है।
 
 सब कुछ भुला कर प्रेम देने के लिए औरत हमेशा तैयार खड़ी होती हैं, लेकिन आत्मकेंद्रित और अहंकारी पति अपने इर्द गिर्द ऐसी दीवार बना लेता है कि सामनेवाला अगर प्रेम देना भी चाहे तो उस दीवार को भेदना आसान नहीं होता। ऐसे पतियों के शब्दकोश में दया, कोमलता, सहृदयता जैसे शब्दों का अस्तित्व ही नहीं होता, उस तक सिर्फ वही व्यक्ति पहुँच सकता है जिसे वह अपने पथरीले अभेद्य दुर्ग में आने की अनुमति दे।
- सुधा अरोड़ा-एक औरत की नोटबुक से
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