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गायत्री शर्मा

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कहते हैं जब आप फिसलन वाली राह पर चलते हैं तब आपको अपने हाथ थामने वाले सहारे की जरूरत सबसे अधिक होती है। यदि हम इसे अपनी जिंदगी के पड़ावों से जोड़ें तो युवावस्था एक ऐसी उम्र है, जब व्यक्ति भटकाव की स्थिति में जीता है। उस वक्त एक छोटी-सी गलती आपके भविष्य को कब अंधकार के गर्त में धकेल देती है। इसका पूर्वाभास भी हमें नहीं होता है।

युवावस्था जीवन की एक अति संवेदनशील अवस्था होती है। इस उम्र में जहाँ एक ओर हमारे सपने अंगड़ाइयाँ लेते हैं वहीं हमारी महत्वाकांक्षाएँ भी चरम तक पहुँच जाती हैं। अपनी उम्र के इस हसीन पड़ाव पर कदम बहकना स्वाभाविक है क्योंकि बाहर की हसीन और रंगीन दुनिया युवाओं को तेजी से अपनी ओर आकर्षित करती है।

  माता-पिता व बच्चों के एक-दूसरे को समझ न पाने की एक छोटी सी गलती के कारण दोनों के बीच मतभेद की एक खाई बनती जाती है, जो वक्त के साथ धीरे-धीरे गहरी होती जाती है तथा युवा को अपने ही परिवारजनों का विरोधी बना देती है।      
ऐसे में परिवार के बड़ों का साथ युवाओं के लिए बहुत अधिक आवश्यक होता है क्योंकि ये ही वो अनुभवी लोग होते हैं, जो देश की नौजवान पीढ़ी को भटकाव से ‍बचाकर सही राह पर ला सकते हैं।

युवा तो वैसे भी अपने जोश व ऊर्जा के कारण जाने जाते हैं। इस पर उनके घर के परिवेश व परिवारजनों के व्यवहार का भी उन पर काफी असर पड़ता है।

यदि उनके माता-पिता एक-दूसरे से विवादों में ही उलझे रहेंगे तो घर के युवा का भी गुस्सैल व चिड़चिड़ा होना स्वाभाविक है। यह सत्य है कि भटकाव भी घर से ही आता है इसलिए घर के वातावरण का सहज व संतुलित होना बहुत आवश्यक है।

युवाओं को महँगे उपहारों से ज्यादा माँ-बाप के प्यार की जरूरत होती है। यही प्यार व सहारा जब उन्हें अपने घर में नहीं मिलता, तो वो इस प्यार को परायों में तलाशते हैं।

माता-पिता व बच्चों के एक-दूसरे को समझ न पाने की एक छोटी-सी गलती के कारण दोनों के बीच मतभेद की एक खाई बनती जाती है, जो वक्त के साथ धीरे-धीरे गहरी होती जाती है तथा युवा को अपनपरिवारजनों का विरोधी बना देती है। जब स्वयं माँ-बाप ही अपने बच्चों को नहीं समझ पाएँगे तो उन्हें कौन समझेगा?

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