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भक्‍तों से मिलने चले भगवान

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हमेशा भक्‍त भगवान के दर्शन करने मंदिरों में जाते हैं। ऐसा बहुत कम होता है, जब भगवान अपने मंदिर से निकलकर भक्‍तों के बीच पहुँच जाएँ। ऐसा ही एक अवसर है - जगन्‍नाथपुरी की रथ-यात्रा का।

उड़ीसा के पुरी की पहचान वहाँ विराजमान जगन्‍नाथ के नाम से है। जगत के नाथ की रथ- यात्रा देखने के लिए सारे जगत के भक्‍तों का जमावड़ा पुरी में लग जाता है। भगवान जगन्‍नाथ की रथयात्रा आषाढ़ मास की शुक्‍ल पक्ष द्वितीया को प्रारंभ होती है और त्रयोदशी तक चलती है।

भगवान जगन्‍नाथ अपने भाई बलभद्र और अपनी बहन सुभद्रा के साथ यात्रा पर निकलते हैं। इस भव्‍य यात्रा को वहाँ की स्‍थानीय भाषा में 'पाहांडी बीजे' कहा जाता है। गाजे-बाजे के साथ रथ पर सवार होकर भगवान अपने भक्‍तों के बीच निकल पड़ते हैं।

सबके जीवन की गाड़ी चलाने वाले ईश्‍वर के रथ को यहाँ लाखों भक्‍त खींचते हैं। तीन दिन की यात्रा के बाद भगवान गुंडीचा मंदिर में पहुँचते हैं और वहाँ सात दिनों तक ठहरते हैं। फिर उसी शानो-शौकत के साथ जगन्‍नाथ अपने मंदिर को लौट आते हैं।

इस रथ-यात्रा में सबसे आगे भगवान जगन्‍नाथ का रथ, बीच में सुभद्रा का और उसके पीछे बलभद्र का रथ चलता है। यह रथ प्रतिवर्ष नई लकड़ी से बनाए जाते हैं। इनका निर्माण करते समय इन पर लोहे या किसी अन्‍य धातु की एक कील तक नहीं लगाई जाती है।

इस यात्रा की एक और विशेषता यह है कि इसमें हर जाति-संप्रदाय के लोग पूरे उत्‍साह से शामिल होते हैं। रथयात्रा के दौरान लोग भगवान को स्‍पर्श करते हैं, उनसे गले मिलते हैं। मंदिर से भगवान के बाहर निकलने के बाद उन पर पूरी तरह से उनके भक्‍तों का अधिकार हो जाता है। भगवान दरिद्रों के नारायण बन जाते हैं।

गुंडीचा मंदिर में सात दिनों तक ठहरने के बाद भगवान की वापसी भव्‍य यात्रा के साथ होती हैं। वापसी के बाद सड़क पर ही भगवान का श्रृँगार किया जाता है। श्रृँगार और भोग के बाद भगवान जगन्‍नाथ, बलभद्र और सुभद्रा तीनों ही अपने मंदिरों में अपने-अपने रत्‍न सिंहासन पर विराजमान हो जाते हैं।

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