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अंतिम संस्कार: कितना सभ्य?

- (वेबदुनिया डेस्क)

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मृतकों के साथ पेश किए जाने वाले तरीकों से हमारे सभ्य या असभ्य होने का पता चलता है। जब धर्म नहीं था तब मृतकों के साथ अजीब तरह के तरीके इस्तेमाल किए जाते थे। वर्तमान में दो ही तरीके प्रचलन में रह गए हैं दफनाया जाना और जलाया जाना। शुरुआत में भारत सहित दुनियाभर में प्राचीनकाल में मृतकों को दफनाए जाने का प्रचलन ही रहा।

अपने मृतकों के अंतिम संस्कार किसी भी सभ्यता के भौगोलिक क्षेत्र पर भी निर्भर करता है। उदाहरण स्वरूप भारत में हिन्दुओं द्वारा किया जाने वाला दाह संस्कार का एक मुख्य कारण उस क्षेत्र में पाए जाने वाले जंगलों में मिलने वाली लकड़ी की बहुलता पर भी निर्भर रहा है।

इसी प्रकार कम वनस्पति वाले क्षेत्रों जैसे कि रेगिस्तानी सभ्यताओं इराक, ईरान, अरब इत्यादि में मृतकों को जमीन में दफनाने का तरीका इस्तेमाल में लाया गया। इंका सभ्यता ने बर्फ तथा पहाड़ी क्षेत्रों में समतल जगह की कमी के चलते गुफाओं तथा खोह में अपने मृतकों का अंतिम स्थल बनाया। दक्षिण अमेरिका की कई सभ्यताओं ने अधिक जलराशि व नदियों के प्रचुर बहाव के क्षेत्रों में मृतकों को जल में प्रवाहित कर उनका अंतिम संस्कार किया जाता रहा है।

साथ ही विभिन्न संस्कृति, सभ्यता और धर्म में मृतकों के साथ किए जाने वाले व्यवहार के कई और भी तरीके है जैसे -
1. जलाना, 2. दफनाना, 3. ममी बनाकर रखना 4. उबालकर कंकाल बनाना, 5. गुफा में रखना, 6. जल दाग देना, 7. पशु-पक्षियों के लिए रख छोड़ना और 8. शवों को खा जाना आदि

मृतकों को जलाना (दाह संस्कार) : इतिहासकार मानते हैं कि मृतकों को जलाने की प्रथा यूनानी और पूर्व आर्यन लोगों ने शुरू की थी। जलाने को सभ्यतावश दाह-संस्कार या अग्नि-संस्कार कहते हैं। ये लोग मानते थे कि जलाने से आत्मा की देह के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है और इससे पृथ्वी को पर्यावरण के ‍नुकसान से भी बचाया जा सकता है। इस कर्म से व्यक्ति की देह पंचतत्व में पूर्णत: लीन हो जाती है।

लेकिन जलाने का वीभत्स रूप जब हमें भारत के गंगा किनारे देखने को मिलता है, तो फिर इस कर्म को असभ्य करार देने में कोई हिचक महसूस नहीं करता। धर्म के जानकार लोग इसे धर्म विरुद्ध मानते हैं।

हिंदुओं में जलाने और दफनाने दोनों ही तरह की परंपरा प्रचलित है। हिंदुओं के कई समाज ऐसे हैं जो अपने मृतकों को दफनाते हैं। उदाहरण के लिए गोसाईं, नाथ और बैरागी समाज के लोग अपने मृतकों को समाधि देते हैं। इसके अलावा हिंदुओं में बच्चों को दफनाए जाने का प्रचलन है।

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बौद्धों में भी जलाने और दफनाने दोनों की ही परंपरा है जो कि स्थानीय संस्कृति के रिवाज से आती है। सिक्खों में भी मृतकों को जलाया जाता है। धर्मज्ञ मानते हैं कि अच्छी तरह से लकड़ी की चिता बनाकर मृतक को उस पर लेटाकर और पूर्ण रीति-रिवाज से दाह-संस्कार करना ही श्रेष्ठ कर्म है अन्य तरीके से दाह-संस्कार करना धर्म विरुद्ध है।

एक सर्वे अनुसार 25 प्रतिशत अमेरिकी दाह संस्कार का तरीका अपनाते हैं। वे अंत्येष्टि स्थल की भट्टी में मृतक को डाल देते हैं। अंत में हड्डियों को निकालकर उसका चूरा बनाकर उसे कलश में रख दिया जाता है। वर्तमान में बॉक्स में रखकर मृतकों को इलेट्रॉनिक मशीन द्वारा राख में बदल दिया जाता है। भारत में इसे विद्युत शवदाह गृह कहा जाता है। भारत में भी ऐसा किए जाने का प्रचलन बढ़ रहा है। बुद्धिजीवी लोग मानते हैं कि शव के साथ ‍किए जाने वाले वीभत्स और असभ्य व्यवहार में से एक यह भी है।

दफनाना : इतिहासकार मानते हैं कि मोसोपोटामिया (इराक) और मिस्र में दफनाए जाने या गुफा में रखे जाने की शुरुआत हुई। इसके चलते प्रारंभ में यहूदी और पारसी धर्म में मृतकों को गुफा में रखे जाने का प्रचलन शुरू हुआ। ईसाई धर्म की शुरुआत में मृतकों को चर्च में रखा जाता था। चर्च मृतकों को रखे जाने का स्थान बन गया था। फिर धीरे-धीरे उसे दफनाए जाने का प्रचलन चला। कालांतर में चर्च से अलग कब्रिस्तान बने।

अलग-अलग कब्रिस्तान : यहूदियों के काल में जब दफनाने की प्रथा शुरू हुई तब कब्रिस्तान अलग-अलग नहीं हुआ करते थे। इधर हिंदुओं के साधु समाज में समाधि देने की परम्परा प्रचलित थी तब भी अलग-अलग समाधि स्थल नहीं होते थे।

बाद में ईसाई और इस्लाम की उत्पत्ति और उत्थान वाले दौर में लोगों के कब्रिस्तान भी अलग-अलग होते गए। कैथोलिक और प्रोटेस्टंटों के अलग कब्रिस्तान हैं। शिया और सुन्नियों के अलग कब्रिस्तान होने के बावजूद उसमें भी कई विभाजन हैं। भारत में जो दलित ईसाई या दलित मुसलमान हैं उनके कब्रिस्तान अलग हो चले हैं। उसी तरह बैरागी, नाथ और गोसाईं समाज के समाधि स्थल अलग-अलग हैं।

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यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारत में मुस्लिम कब्रिस्तान के लिए सरकार जगह उपलब्ध कराती है किंतु नाथ और गोसाईं समाज आज भी अपने लिए एक अलग समाधि स्थल के लिए लड़ाई लड़ रहा है। गोस्वामी समाज के लोग अपने मृतकों को ‍निजी जमीन पर समाधि देते हैं। उक्त समाजों के लोग अपने मृतकों को बैठक समाधि देते हैं अर्थात उन्हें बिठाकर ही दफना दिया जाता है।

उधर अमेरिका में हॉलीवुड का अलग कब्रिस्तान है जहाँ सिर्फ हॉलीवुड की मशहूर हस्तियों को ही दफनाया जाता है। इसी तरह दुनियाभर में अमीरों व प्रसिद्ध व्यक्तियों के अलग कब्रिस्तान विकसित हो गए हैं। धनाढ्य लोग अब तो पहले से ही कब्रिस्तान की जगह बुक करा लेते हैं। यह भी तय होने लगा है कि पति-पत्नी दोनों को पास-पास ही दफनाया जाए। पूर्तगाल के एक द्वीप को पूरी तरह से अमीर लोगों की कब्र के लिए ही विकसित किया गया है।

पहले कब्रिस्तान अव्यवस्थित-बंजर हुआ करता था, लोग वहाँ जाना पसंद नहीं करते थे। फिर ‍धीरे-धीरे कब्रिस्तान में बगीचा विकसित किया जाने लगा। इसके पीछे तर्क दिया गया कि जहरीले पदार्थ और गैस को बगीचे में लगे पेड़-पौधे सोख लेंगे।

मौत का मातम या उत्सव : वैसे तो सभी धर्म में अपने परिजनों की मौत पर गम मनाने की परंपरा है। हिंदू, मुसलमान, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई आदि सभी में मौत का मातम मनाया जाता है, लेकिन सभी धर्मों के अंतर्गत ‍कुछ ऐसे समाज हैं जो धर्म के नियमों से हटकर भी कार्य करते हैं।

उनमें से कुछ समाज अपने परिजनों के मरने का गम मनाते हैं और कुछ समाज मौत का उत्सव मनाते हैं। गम मनाने के तरीके भी अलग-अलग हैं और उत्सव मनाने के तरीके भी भिन्न हैं लेकिन इनमें एक बात समान है कि दोनों ही तरीकों में मृत्युभोज दिया जाता है।

उत्सव मनाने वाले लोग या समाज शराब पीना या नाचना, गाना आदि तरीके से उत्सव मनाते हैं। कुछ समाज नाचते-गाते ढोल-ढमाके के साथ शव यात्रा निकालते हैं। गम मनाने वाले समाज शवयात्रा में किसी भी प्रकार का शोर-शराबा नहीं करते और मुंडन कराकर चालीस दिन या सवा माह तक घर में गमी का माहौल ही रखते हैं।

पश्चिमी मध्य चीन के दापाशान और वुलिंगशान पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित थु जाति में अंतिम संस्कार बड़े धूमधाम से किया जाता है। मृतक को विदाई देने के दौरान नाच-गाना और खान-पान चलता रहता है। ये लोग बौद्ध धर्म को मानने वाले हैं, लेकिन स्था‍नीय प्रभाव के कारण यह प्रथा प्रचलन में है। इसी तरह दुनियाभर की कई जनजातियों व समाजों में मृत्यु का उत्सव मनाने की परंपरा है।

अजीब रिवाज : मिस्र के अभिलेखागार के प्रमुख जाही हवास गिजा के पिरामिडों में ममी बनाकर रखे गए फराओ के शव के कारण फराओ साम्राज्य को आज भी एक रहस्य मानते हैं। यह शव लगभग 3500 साल पुराने माने जाते हैं। ये शव आज भी इस बात के गवाह हैं कि शवों को संलेपन द्वारा ममी बनाकर इस धारणा के साथ ताबूत में बंद कर दफना दिया जाता था कि एक न एक दिन यह फिर जिंदा हो जाएँगे।

सबसे वीभत्स तो यह कि प्राचीनकालीन मैक्सिको में लोग शव को कब्र से निकालकर उसके साथ दावत उड़ाते थे। दावत के बाद उसे फिर से दफना दिया जाता था। मूल अमेरिकी कबीलों में शव को खाकर खतम कर दिया जाता था। विशेष रूप से उसका मस्तिष्क खा लिया जाता था। कुछ समाज के लोग शव को उबालकर उसका कंकाल बनाकर रख लेते थे।

जब कैमरे का अविष्कार हुआ तो अमेरिका और ब्रिटेन में मृतकों की तस्वीर उतारने का प्रचलन भी बढ़ गया। खासकर बच्चों की। लेकिन भारत और चीन में शवयात्रा या मृतकों के चित्र खींचना थोड़ा बुरा ही माना जाता है किंतु राजनेताओं और प्रसिद्ध व्यक्तियों के शव पर ये बात लागू नहीं होती।

पारसियों में आज भी मृतकों को न तो दफनाया जाता है और न ही जलाया जाता है। पहले वे शव को पहले से नियुक्त खुले स्थान पर रख आते थे और आशा करते थे कि हमारे परिजन गिद्ध का भोजन बन जाएँ। लेकिन आधुनिक युग में यह संभव नहीं और गिद्धों की संख्‍या भी तेजी से घट गई है तब उन्होंने नया उपाय ढूँढ लिया है। वे शव को उनके पहले से नियुक्त कब्रिस्तान में रख देते हैं जहाँ पर सौर ऊर्जा की विशालकाय प्लेटें लगी हैं जिसके तेज से शव धीरे-धीरे जलकर भस्म हो जाता है।

दूसरी ओर हिंदुओं में जल दाग देने की प्रथा भी है, जिसके चलते गंगा-यमुना में कई शव बहते हुए देखे जा सकते हैं। कुछ लोग शव को एक बड़े से पत्थर से बाँधकर फिर नाव में शव को रखकर तेज बहाव व गहरे जल में ले जाकर उसे डुबो देते हैं। यह मृतकों के साथ किए जाने वाले अजीबोगरीब असभ्य तरीकों में से एक है।

हारर चित्रण : ईसा मसीह के जमाने से ही जिंदा लोगों को दफनाने या कब्र से जिंदा हो उठने का भय अभी ‍भी व्याप्त है। एक उपन्यासकार ने कब्र से जिंदा निकल आए लोगों की दास्तान पर उपन्यास लिखकर भय को और बढ़ाया। हॉलीवुड में इस थीम को लेकर कई फिल्में भी बनीं।

क्रायोनिक्स : अमेरिकी और ब्रिटेन के कुछ समाज मानते हैं कि मृतकों को फिर से जिंदा किया जा सकता है। वे मानते हैं कि क्रायोनिक्स (Kryonics) मृतकों को जिंदा करने की एक संगीत तकनीक या विचार है। मृतकों को संलेपन कर ममी बनाकर रखने वाले इसी विचारधारा के हैं। बुद्धिवादियों अनुसार यह एक कल्पना मात्र है।

वस्तु के साथ शव : कुछ लोग धार्मिक रीति से हटकर दफनाए जाने के तरीके इजाद करते हैं। कोई अपने परिजन को कार के साथ दफनाता है तो कोई मोटरसाइकिल के साथ। जिस व्यक्ति को जिस तरह का शौक था या जिसकी वह जीवनभर इच्‍छा करता रहा, उसे उस-उस वस्तु के साथ दफनाए जाने का प्रचलन भी बढ़ा है।

मौत का व्यापार : अब मौत लोगों की जरूरत पूरी करने के लिए एक बड़ा व्यापार बन चुकी है। अमेरिका में ताबूत को कैस्कट (Casket ) कहा जाता है। कैस्कट कई तरह की वैराइटी में मिलता है, जैसे अमेरिकन स्टाइल, यूरोपीयन स्टाइल आदि। ब्रिटेन में ताबूत को कोफिन (Coffin) कहा जाता है। ब्रिटेनी ताबूत भी कई प्रकार के होते हैं। जैसा दाम वैसा ताबूत।

शव को संलेपन (embalm) करने का तरीका भी अब कारोबार का रूप ले चुका है। सस्ते और महँगे सभी तरह के ताबूत और संलेपन उपलब्ध हैं।

दूसरी ओर अपने मृतकों का दाह संस्कार करने वाले समाजों के लिए अब एक ही जगह पर अन्त्येष्टि का सामान उपलब्ध है। अच्छी किस्म की लकड़ी के दाम थोड़े महँगे हैं। मृतकों के साथ रखे जाने वाले परंपरागत सामान जैसे नए कपड़े, चाँदी की सीढि़याँ, आँख में रखे जाने वाले सोने के मोती आदि। विद्युत शवदाह का प्रचलन भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है। दूसरी ओर गंगा-यमुना के किनारे दाह करने वाले अब ज्यादा पैसे माँगने लगे हैं। बीच नदी में जाकर जलदाग देना है तो उसके महँगे दाम हैं।

अंतरिक्ष में अवशेष : पैसा है तो शव के अवशेषों (14 ग्राम) को अंतरिक्ष में भेजने की व्यवस्था भी कर दी जाएगी। यह अवशेष 30 से 40 साल तक पृथ्वी की कक्षा में घूमकर जब वायुमंडल में प्रवेश करते हैं तो जलते हुए बिखर जाते हैं। अमेरिका में ऐसी बहुत से संस्थाएँ हैं जो यह काम करवाने का दावा करती हैं।

अंतिम संस्कार का मनोविज्ञान : जिन समाज में शव को दफनाया जाता है वे दाह संस्कार के प्रति भय से ग्रस्त ही रहते हैं। उनमें से कुछ इसे जाहिलाना कृत्य मानते हैं। दूसरी ओर जिन समाज में दाह-संस्कार की परंपरा है वे दफनाए जाने को पर्यावरण के विरुद्ध मानते हैं।

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