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आत्मसंतोष से बड़ा कोई धन नहीं

आत्म मंथन से आएगी सुख-शांति

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सुख, वैभव एवं विलासिता में लिप्त मनुष्य को अपनी चाल, अपने चरित्र और अपनी चेतना को पवित्र बनाने की तरफ ध्यान देना चाहिए। चाल यदि पवित्र होगी तो सद्मार्ग प्राप्त होगा। चरित्र में पवित्रता होगी तो जीवन सार्थक होगा और चेतना पवित्र होगी तो मन में शांति मिलेगी। जीवन में आत्मसंतोष से बड़ा कोई धन नहीं है। बाहरी वस्तुएँ संतोष नहीं देती, जबकि भीतरी संपन्नता संतोष प्रदान करती है।

ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखें : हम जब मंदिर में जाते हैं तो भगवान को स्वीकार करने की बजाय उनसे शिकायत करने लगते हैं। भगवान को श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक स्वीकार करना चाहिए। हमें भगवान को उसकी सत्ता एवं व्यवस्था को स्वीकार करना चाहिए। जीवन में भक्ति के समावेश हो जाने पर उसकी सार्थकता हो जाती है। मन एवं शरीर की शुद्धता के लिए प्रत्येक व्यक्ति को योग-प्राणायाम करना चाहिए। इससे शरीर व मन स्वस्थ रहता है। मन के मजबूत होने पर अच्छा कर्म किया जा सकता है।

जब-जब होए धर्म की हानि : जब-जब संसार में पाप बढ़ता है और धर्म की हानि होती है, भगवान के भक्त व निर्धन, असहाय और सत्य के मार्ग पर चलने वालों को परेशानी होती है। तब जगत पिता परब्रह्म परमेश्वर मनुष्य रूप में अवतरित होकर इस धरती पर जन्म लेते हैं और पापियों का विनाश कर पुनः धर्म की स्थापना करते हैं।

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माता-पिता, गुरुजनों का करें आदर : मनुष्‍य को धर्म की राह पर चलने के साथ-साथ अपने माता-पिता एवं गुरु का आदर करना चाहिए। हिंसा त्यागने एवं सात्विक जीवन जीना चाहिए। राजसी एवं तामसी प्रवृत्ति जब जोर मारती है तब बुद्धि गलत निर्णय लेती है, तभी व्यक्ति बड़े से बड़ा अपराध कर बैठता है, इसलिए सत्वप्रधान आचार-विचार, आहार-विहार, सत्संग, जप, आदि का सहारा लेना चाहिए, जिसमें बुद्धि उल्टे मार्ग पर नहीं जाए, यदि अपराध हो भी गया हो तो उसे लेकर मन में हीन भावना ना पालें, बल्कि दोबारा अपराध ना करने का संकल्प लेकर कार्य करें, यही सबसे बड़ा प्रायश्चित होगा।

सुखों की चाह में दुखों से भाग रहा संसारी : संसारी प्राणी सुखों की चाह में दुखों से दूर भागना चाहता है। जबकि वह दिन प्रतिदिन पैसों की लालच में दया, प्रेम व वात्सल्य को छोड़ता जा रहा है। वह संसार सागर में कर्म तो अच्छे नहीं कर रहा है वरन्‌ वह मोह ममता के वशीभूत होकर दुखों के बंधन में बंध रहा है।

आत्म मंथन से आएगी सुख-शांति : संसार में जीवों को आत्म ज्ञान न होना अनेक क्लेशों का कारण बन रहा है। गोविंद रूपी मथनी से दशोंरूपी इंद्रियों के बीच हृदय की रस्सी से जब जीव अपने आप का मंथन करता है तो भक्तिरूपी अमृत सुख-शांति और वैभवता उसे प्राप्त होती है। समुद्र रूपी मंथन से सबसे पहले विष निकला नीलकंठ भगवान शंकर ने जिसका विषपान किया। सारांश यह है कि जब जीव अपने आपका मंथन करता है तो उस अवस्था में पहले विषयवासना रूपी विष प्राप्त होता है उस समय नीलकंठ का स्मरण करते मन को गोविंदरूपी भक्ति से अमृतरूपी सुख शांति प्राप्त होती है।

महाराज रामदास ने कहा कि मानव समाज ही दशरथ है,जो मानव अपनी दशोंरूपी इंद्रियों के घोड़ों को नियंत्रित करता है। उसके यहाँ परम ब्रह्म नारायण व राम का जन्म होता है। राम का चरित्र समाज को मर्यादाओं के बोध के साथ चरित्र शुद्घि की घोषणा करता है।

भगवान का करें स्मरण : जो व्यक्ति दान नहीं करता, उससे लक्ष्मीजी छिन जाती है। अपने जीवन में हर व्यक्ति को दान-पुण्य करना चाहिए। परमात्मा जब व्यक्ति को धन-संपदा देता है तो उसके हिसाब से उसे खर्च भी करना चाहिए। मनुष्य को जीवन में सुख पाने के लिए भगवान को याद करते रहना चाहिए।

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