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गंगा इसीलिए पृथ्वी से चली गई!

- ज्योतिर्मय

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कलियुग के पाँच हजार साल बीतने पर गंगा भी पृथ्वी से चली जाएगी। - देवी भागवत पुराण (स्कंध 9, अध्याय 11)
 
यह पंक्ति गंगा की उत्पत्ति और स्वर्ग से नीचे उतरने पर किए गए विलाप के उत्तर में विष्णु के एक आश्वासन के तौर पर है। पुराणों में इस आश्वासन का औचित्य यह कहते हुए दिखाया गया है कि कलियुग में पाप, अन्याय, अत्याचार और अधर्म इस कदर बढ़ जाएँगे कि किसी भी दैवीय रचना का अस्तित्व बनाए रखना मुश्किल होगा लेकिन पौराणिक मान्यताओं का आधुनिक दृष्टि से विवेचन करने वाले विद्वान इस पंक्ति को पर्यावरण और औद्योगिक प्रदूषण से जोड़ते हुए कहते हैं।
 
प्रकृति के किसी भी नियम या मर्यादा का उल्लंघन अधर्म पाप है तो प्रदूषण फैलाने और पर्यावरण संतुलन बिगाड़ने के तौर पर आधुनिक सभ्यता उस अधर्म को जोर-शोर से कर रही है। सिर्फ गंगा ही नहीं जलवायु परिवर्तन पर तैयार की गई एक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया की दस बड़ी नदियाँ सन् 2040 तक सूख जाएँगी। इन नदियों में मिस्र की नील, चीन की यांगत्सी, मेकाम और ब्रिटेन की टेम्स नदियाँ भी हैं।
 
भारतीयों के लिए यह निष्कर्ष एक त्रासद चेतावनी है क्योंकि गंगा दूसरी अमेरिकी और यूरोपीय नदियों की तरह मात्र एक जल स्रोत नहीं है बल्कि धर्म, आस्था और संस्कृति से भी जुड़ी हुई है। ऋग्वेद में इसे माँ कहकर प्रणाम किया गया है। विस्तार, आयु और प्रवाह में दुनिया की तेरहवीं सबसे बड़ी नदी गंगा की उत्पत्ति और गुण के साथ कई मिथ जुड़े हुए हैं।
 
आखिर क्या है गंगा में जो नील, यांगत्सी और टेम्स आदि नदियों में नहीं है। ये नदियाँ प्रदूषण रहित होते हुए भी गंगा की तरह लोगों के जीवन-मरण का हिस्सा नहीं हैं। एक विशेषता जो पुरानी पीढ़ी के लोग बताते रहे हैं, अब लुप्त हो चुकी है। विशेषता यह कि गंगा का पानी कभी खराब नहीं होता। यह सिर्फ किंवदंती नहीं है। 1960-65 तक भारत के गाँव-कस्बों में यह दावा करने वाले लोग बड़ी संख्या में मिल जाते थे कि गंगा का पानी हमेशा पवित्र रहता है।
 
इस पुण्य नदी से भरकर लाए गए जल को लोग दीवारों में चिनवाकर या छत पर कहीं ऐसी जगह सुरक्षित रखते थे जहाँ कोई छू न सके और कहते हैं कि वह पानी बरसों बरस ज्यों का त्यों मिलता था। जयपुर के सिटी पैलेस में सन् 1922 में दो घड़ों में बंद करके रखा गया जल 1962 में खोला गया तो ज्यों का त्यों ताजा और शुद्ध निकला।
 
गंगा जल की इन विशेषताओं को जाँचने के लिए 1965 में पेंसिलवेनिया की हामन लेबोरेटरी ने एक अध्ययन किया तो पाया कि गंगा जल में जीवाणुभोजी (बैक्टीरियो फाजो) तत्व मिलते हैं। ये तत्व गंगाजल में गंगोत्री से ऋषिकेश तक के मार्ग में पहाड़ी रास्तों और जंगलों से गुजरते हुए जड़ी-बूटियों और उससे समृद्ध मिट्टी के संसर्ग में आने से मिलते हैं। ध्यान रहे कि नदी जल की शुद्धता का एक बड़ा पैमाना है डीओ (घुलित ऑक्सीजन) और बीओडी (बायोसाजिकल ऑक्सीजन डिमांड)। पानी में इनका स्तर क्रमशः पाँच तथा तीन मिग्रा प्रति लीटर होना चाहिए लेकिन गंगा जल में बीओडी का स्तर नौ प्रतिशत तक पहुँच गया है।
 
इस कारण गंगा जल की शुद्धता दिनोदिन लुप्त होती गई लेकिन सिर्फ यही एक कारण नहीं है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पूरी दुनिया में औद्योगिक और तकनीक क्रांति ने पृथ्वी के मिजाज को गर्म कर दिया। उस तापमान का सबसे बुरा असर बर्फ पर पड़ा है। दुनिया के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। हिमनद वैज्ञानिक एल.थॉमसन ने अपनी टीम के साथ एक विस्तृत अध्ययन किया। उसके मुताबिक गंगोत्री हिमनद प्रतिवर्ष 25 मीटर की दर से खिसक रहा है। इसका नतीजा पहले बाढ़ और फिर सूखे के रूप में होगा। उत्तर काशी में गंगा का स्तर अगले 25 से 30 साल में 30 प्रतिशत तक बढ़ जाएगा बाद के दस वर्षों में वह मूल स्तर से 50 प्रतिशत तक कम हो जाएगी।
 
मनीषी इस वैज्ञानिक विश्लेषण को दूसरी तरह से समझाते हैं। उनके अनुसार 20वीं सदी के शुरू में हरिद्वार में जब गंग नहर बनाने का काम शुरू हुआ तब कलियुग के पाँच हजार साल पूरे होते थे। उस समय के परिवर्तनों को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि गंगा स्नान और तीर्थ सेवन के लिए निर्धारित मर्यादाओं का उल्लंघन उन्हीं दिनों शुरू हुआ।
 
उदाहरण के लिए तीर्थ स्थान की दृष्टि से जाने वाले लोग आज भी गंगा में साबुन लगाकर स्नान नहीं करते, कपड़े नहीं धोते, गंदगी बहाना तो बहुत दूर की बात है लेकिन पर्यटन ने इस सब विधि निषेधों को उलट दिया है। यह उस जमाने का विश्लेषण है जब औद्योगिक क्रांति ने इतना प्रचंड रूप धारण नहीं किया था। जिस गंगा के किनारे मामूली से प्रदूषण और अशुद्धता को वर्जित किया गया था उसमें औद्योगिक कचरा फेंकने वाली व्यवस्थाओं ने गंगा को पृथ्वी से जाने के लिए मजबूर कर दिया तो आश्चर्य ही क्या।

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