ऐसी प्रतिमाओं को पानी में विसर्जित करने के बाद जब जल के भीतर उनका वास्तविक अपघटन प्रारंभ होता है, तब ये तत्व जल में विषाक्तता फैलाते हैं। इसकी वजह से नदी, तालाब या समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान होता है।
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ऐसी प्रतिमाओं को पानी में विसर्जित करने के बाद जब जल के भीतर उनका वास्तविक अपघटन प्रारंभ होता है, तब ये तत्व जल में विषाक्तता फैलाते हैं। इसकी वजह से नदी, तालाब या समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान होता है। इस विषाक्तता की वजह से पानी के भीतर मछलियों व अन्य जीवों की असमय मौत हो जाती है और यह पानी पीने लायक नहीं रह जाता है।
हर साल हजारों की संख्या में ये प्रतिमाएँ जलस्रोतों में विसर्जित की जाती हैं। बहते हुए पानी में टॉक्सिक धातुओं की सांद्रता कम होने की वजह से अभी हमें इसके प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई नहीं दे रहे है, लेकिन इनके दुष्प्रभाव से कई नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँच चुका है।
अब इनके हानिकारक नतीजे जलस्रोत के बाहर भी नजर आने लगे हैं। जिस पानी में किसी तरह की विषाक्तता व्याप्त हो, उसे पीने की वजह से पीने वाले को बीमारियाँ होती हैं, इसका सेवन करने वाले कभी गंभीर तो कभी सामान्य बीमारियों के शिकार होते हैं।
यदि इस तरह की विषाक्तता से मानव समुदाय को पहुँचने वाले नुकसान का वास्तविक आकलन किया जाए तो आश्चर्यजनक आँकडे़ प्राप्त होंगे। धर्म के अनुसार भी केवल मिट्टी, पीतल, ताँबे या चाँदी की प्रतिमा को ईश्वर का स्वरूप मानकर पूजा की जाती है यानी कि प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी प्रतिमाओं का पूजन करने के बाद, हमें पूजन का वास्तविक फल प्राप्त नहीं होता है। ऐसा हम नहीं, धार्मिक व्याख्या ही कह रही है। धर्म और इतिहास के जानकारों के अनुसार पूर्व में केवल मिट्टी की प्रतिमाओं को ही जलस्रोतों में विसर्जित किया जाता था। इन प्रतिमाओं को प्राकृतिक ढंग से तैयार किए गए रंगों से रंगा जाता था। जब ये प्रतिमाएँ जलस्रोतों में विसर्जित की जाती थीं, तो जल के भीतर इनका पूर्ण अपघटन हो जाता था और इनसे जलस्रोत को जरा भी हानि नहीं पहुँचती थी। लेकिन आज के परिदृश्य में देखें तो प्लास्टर ऑफ पेरिस की बनी और ऑइल पेंट से पोती गई प्रतिमाएँ पानी में पूर्ण रूप से अपघटित नहीं हो पाती हैं।
अक्सर गर्मी के मौसम में तालाबों का जल सूखता है तो उनके अंदर खंडित प्रतिमाएँ देखी जा सकती हैं। इनमें देवी-देवताओं के कुछ अंग क्षत-विक्षत हो जाते हैं, ऐसे दृश्य देखने के बाद हमारी धार्मिक आस्था को ठेस पहुँचती है साथ ही यह दैव प्रतिमा की मर्यादा के विरु
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अक्सर गर्मी के मौसम में तालाबों का जल सूखता है तो उनके अंदर खंडित प्रतिमाएँ देखी जा सकती हैं। इनमें देवी-देवताओं के कुछ अंग क्षत-विक्षत हो जाते हैं, ऐसे दृश्य देखने के बाद हमारी धार्मिक आस्था को ठेस पहुँचती है साथ ही यह दैव प्रतिमा की मर्यादा के विरुद्ध है। सबसे बड़ी बात कि इससे जलस्रोत प्रदूषित हो जाते हैं। इनमें रहने वाले जलीय प्राणियों को असमय मौत का शिकार होना पड़ता है।
जिस कृत्य से निर्दोष जीवों को नुकसान हो, क्या आप उसे धार्मिक कृत्य की संज्ञा देंगे?
भगवान गणेश तो स्वयं विद्या और बुद्धि के दाता हैं फिर हम उनके भक्त होकर भी इस विसर्जन को तर्क की कसौटी पर क्यों नहीं कसना चाहते?
गणेशोत्सव की शुरुआत भी सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों को एक मंच देने के लिए की गई थी। आज हमारा देश जल संकट और जल प्रदूषण जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है तो कम-से-कम हम इतना तो कर ही सकते है कि हमारी सामूहिक खुशी हमारे ही अपने जलस्रोतों के लिए हानिकारक न सिद्ध हो।
गणेश प्रतिमा का विसर्जन गणेशोत्सव की एक अनिवार्यता है। इसलिए परंपरा को हमें निभाना तो होगा ही। इसलिए हम चाहें तो इस परंपरा को इस तरह निभाएँ कि इसका कोई हानिकारक प्रभाव हमारे जलस्रोतों पर न पड़े।
इसका सबसे अच्छा तरीका है कि गणेशजी की मिट्टी से बनी प्रतिमाओं को ही स्थापित किया जाए, जिन पर कच्चा रंग चढ़ा हो।
तब शायद हमारी नदियाँ, झीलें और तालाब भी भगवान गणेश की विदाई में आनंद से भाग लेंगे।