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गीता में परमात्मा प्रा‍प्ति के संदेश

मन की वृत्तियों का छेदन संभव

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हमें फॉलो करें भगवान श्रीकृष्ण
- स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि
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मनुष्य को ऐसे चिंतन और ऐसे विचार से अपने को दूर रखना चाहिए, जिससे उसकी अपनी आस्था में भटकाव हो जाए। मनुष्य इस दुनिया में उस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आया है, जिसे प्राप्त कर लेने के बाद फिर कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रह जाती।

अव्यय परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मनुष्य के भीतर कौन-कौन से गुण होने चाहिए उसी को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता संदेश के माध्यम से मानव मात्र के लिए दे दिया है। उस अव्यय पद को ज्ञानी व्यक्ति प्राप्त करता है। जो मूढ़ व्यक्ति होता है, वह संसार में भटक जाता है। और उसी भटके हुए मार्ग को सत्य मान लेता है।

भटकन की यही तो कठिनाई है। वस्तुतः आदमी पहले भटकन में, फिर अटकन में, उसके बाद लटकन में, फिर फटकन- इन चार वस्तुओं में फँस जाता है। आप विचार कर देखें कि कोई व्यक्ति चिंतन के द्वारा, किसी को प्रभावित करने का प्रयत्न करने लगे तो अपने ग्रंथों के प्रति भी कई बार श्रद्धा का अभाव हो जाता है।

भगवान ने गीता में कहा कि बुद्धिमान मनुष्य को कर्मों में आसक्ति रखने वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात्‌ कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न नहीं करनी चाहिए। श्रद्धालुओं में बुद्धि-भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिए- लेकिन समाज में बहुत बार ऐसे बुद्धिमान लोग भी आ जाते हैं, जो परंपरा का निरंतर विरोध करते हैं। सनातन से मान्य परंपराओं के ऊपर, अपनी बुद्धि से प्रहार करते हैं। उनमें कुछ श्रेष्ठ हो, उसे अवश्य लेना चाहिए, किंतु अपनी आस्था में कहीं भटकाव हो जाए- ऐसे चिंतन, ऐसे स्वाध्याय, ऐसे विचार से अपने को दूर रखने का प्रयत्न करना चाहिए।

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मनुष्य संसार में आया- अव्यय पद अर्थात्‌ उस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए-जिसे प्राप्त कर लेने के बाद, फिर कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहती। जीवन का सबसे बड़ा लाभ यही है। इसे प्राप्त कर मनुष्य, जीवन के बड़े से बड़े संकट में भी विचलित नहीं होता।

हम संसार में रहते हैं - बड़े व्यवस्थित, लेकिन छोटी-मोटी घटनाएँ विचलित कर देती हैं। भगवतगीता का संदेश- मानव के जीवन में से, विचलन का अभाव कराने का संदेश है। वह अविचल भाव से, जिसे गीता ने स्थितप्रज्ञ कहा है- संसार की अनुकूलता में, प्रतिकूलता में, प्रिय-अप्रिय में, संयोग में, वियोग में, मान-अपमान में- अपने जीवन को चलाने का प्रयत्न करें, यह श्रीमदभगवतगीता का दर्शन है। उस अव्यय पद को प्राप्त करने के लिए, मनुष्य को कुछ छोड़ना पड़ेगा। बिना कुछ छोड़े प्राप्त करना मुश्किल है।

किसी व्यक्ति के मन में इच्छा हो कि मैं छत पर, अगासी पर जाऊँ, तो उसे किसी न किसी सीढ़ी का प्रयोग करना पड़ता है। जब वह सोपानों पर चलता है, अगासी उसने देखी नहीं है। दिखाई नहीं पड़ती लेकिन सीढ़ियाँ दिख रही हैं।

किसी व्यक्ति ने कहा-'छत पर वैदूर्य मणि है। बहुत चमक रही है। वहाँ पहुँचने के बाद बहुत कुछ प्राप्त होगा, जो कभी देखा नहीं होगा, सोचा नहीं होगा। लेकिन उस उच्च शिखर पर ले जाने वाली सीढ़ियों में से प्रथम सीढ़ी चाँदी से मढ़ी हुई थी। जब वह चढ़ने लगा, तो विचार करने लगा कि ऊपर किसने देखा है, यहाँ चाँदी तो लगी है, उखाड़कर ले जा सकते हैं। वह कुछ देर तक बैठा रहा कि यहाँ कोई न हो, तो इसमें से ले जा सकते हैं।

दूसरे दिन, दूसरा यात्री आया। वह दूसरे सोपान पर चढ़ा, तो देखा कि स्वर्ण लगा हुआ है। उस पर उसका आकर्षण जग गया। प्रथम यात्री पहले, थोड़े रजत के आकर्षण में आकर्षित होकर लौट गया। दर्शन करना था वैदूर्य मणि का पहले भटका, फिर अटका, इसके बाद लग गया एक झटका और घूमता ही रहा भटकाव में। कुछ हाथ लगा नहीं। जीवन भ्रम में ही चला गया।

यही तो मनुष्य की कठिनाई है कि जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ भ्रम हो जाता है और जहाँ भ्रम होना चाहिए, वहाँ श्रद्धा हो जाती है। जगत में निवास करते-करते जगत के मिथ्यात्व का बोध होना चाहिए। क्योंकि अनेक ऐसे लोग हो गए, जिन्हें जगत के पदार्थों को छोड़ते देखा है। इस जगत में से उनका प्रस्थान भी देखा है।

प्रस्तुतिः आचार्य गोविंद बल्लभ जोशी

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