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जाति और धर्म की बंद गलियाँ

- प्रज्ञा

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कुछ ही समय पहले एम्स में छात्रा द्वारा की गई आत्महत्या की खबर ने एक बार फिर झकझोर दिया। एक बार फिर जातिवाद की ऐतिहासिक-सामाजिक सड़ांध ने मुँह उठाया। एक बार फिर तथाकथित आधुनिक कहे जाने वाले समाज का चेहरा बेनकाब हुआ। एक बार फिर समाज के आईने में ऊँची मानी जाने वाली जातियों ने निचली जातियों को सबक सिखाया। फिर एक बार सिद्ध हुआ कि शिक्षा सामाजिक विकास की राहें अब तक खोल नहीं पाई है।

इस खबर से ठीक पहले एक घटना कॉलेज में घटी। एक कार्यक्रम के दौरान छात्रों में कहा-सुनी हो गई। जब तक शिक्षकों तक बात पहुँचती बात बहुत आगे बढ़ गई थी। झगड़ा हॉस्टल और स्थानीय लड़कों की हद से गुजरकर धार्मिक रूप ले बैठा। इस मारपीट में सांप्रदायिक रंग-रेशे भी उजागर हुए। ये दोनों घटनाएँ धार्मिक और जातिगत आधार पर किए जा रहे अमानवीय व्यवहार की दास्तान हैं।

इन दास्तानों से उच्च शिक्षा के संस्थानों में जड़ जमाए बैठी रूढ़ियों की सही तस्वीर भी बयां हो जाती है। उच्च शिक्षा ही क्यों स्कूलों में भी जातिवाद की दीवारें सिर उठाए हुए हैं। कुछ समय पूर्व बिहार में एक परीक्षा के दौरान स्कूली बच्चों से उत्तर पुस्तिकाओं पर अपनी जाति लिखने के लिए कहा गया। बाद में हो-हल्ला मचने पर इस आदेश को वापस ले लिया गया। फिर भी इस घटना ने सामाजिक संरचना के भीतर बजबजाते जातिवाद के सड़े-ठहरे पानी का चेहरा साफ दिखा दिया।

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बात चाहे उच्च शिक्षण संस्थानों की हो या स्कूलों की, जाति और धर्म के आधार पर फैली असमानताओं का आलम समान है। बात कुछ दिन पहले की है-दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल ने विद्यार्थियों के लिए भ्रमण का कार्यक्रम बनाया। इस दिन बच्चों को विभिन्न धार्मिक-स्थलों पर ले जाया गया ताकि बच्चे विभिन्न उपासना-स्थलों का परिचय पा सकें।

इस पूरे कार्यक्रम में हिन्दू मंदिरों, जैन मंदिर, गुरुद्वारे और चर्च में जाने की योजना बनाई गई लेकिन किताब में मस्जिद की जानकारी होते हुए भी और भ्रमण के रास्ते में पड़ने वाली जामा मस्जिद को सिरे से उपेक्षित किया गया। अफसोस की बात तो ये थी कि अधिकांश अभिभावकों को यह आपत्तिजनक भी नहीं लगा। एक बेहद सुनियोजित तरीके से आयोजित किए गए इस कार्यक्रम से एक धर्म को चुपचाप हाशिए पर सरका दिया गया। ऊपरी तौर पर देखने में सांप्रदायिक सद्भाव का यह कार्यक्रम अपनी वास्तविकता में किस कदर सांप्रदायिक है, छिपा नहीं रहा।

शिक्षा मुक्ति का औजार है पर सवाल यह है कि धर्म और जाति की बंद गलियों में प्रतिभाएँ कब तक दम तोड़ती रहेंगी?

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