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जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि

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हमें फॉलो करें जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि
- रमेशचन्द्र शर्मा

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हरमेश और सुदेश के आपसी संबंध प्रायः बदलते रहते हैं। कभी आपस में गहरी छनती है तो कभी महीनों एक-दूसरे की शक्ल नहीं देखते। इसकी वजह है दोनों के एक-दूसरे के प्रति बदलते दृष्टिकोण। जब उनमें अच्छे संबंध होते हैं तो पता नहीं कब जरा-सी बात मनमुटाव का कारण बन जाती है और जब वे एक-दूसरे से रूठे से रहते तो जाने कौन-सी अच्छाई एक-दूसरे को याद आती और वे मनमुटाव बिसराकर पूर्ववत मित्र बन जाते।

दरअसल यह दृष्टि और सृष्टि का मामला है। मनुष्य की जैसी दृष्टि होगी, वैसी उसकी सोच बनेगी और जैसी सोच होगी वैसा उसे नजर आएगा। यहाँ आधा भरा, आधा खाली गिलास का दृष्टांत अप्रासंगिक न होगा। एक व्यक्ति को गिलास आधा खाली नजर आता है तो दूसरे को आधा भरा।

मनुष्य अच्छाइयों और बुराइयों का मिश्रण है। फिल्म 'मदर इंडिया' के गीत के बोल देखिए, 'ना मैं भगवान हूँ, ना मैं शैतान हूँ, अरे, दुनिया जो चाहे समझे, मैं तो इंसान हूँ/ मुझ में भलाई भी है, मुझमें बुराई भी है, थोड़ा-सा नेक हूँ, थोड़ा बेईमान हूँ।' बस, देखने वाली बात यह है कि सामने वाले को हम क्या समझते हैं? जैसा हम समझते हैं, जैसा हम सोचते हैं, वैसा हमें सामने वाला नजर आता है।
  दरअसल यह दृष्टि और सृष्टि का मामला है। मनुष्य की जैसी दृष्टि होगी, वैसी उसकी सोच बनेगी और जैसी सोच होगी वैसा उसे नजर आएगा। यहाँ आधा भरा, आधा खाली गिलास का दृष्टांत अप्रासंगिक न होगा। एक व्यक्ति को गिलास आधा खाली नजर आता है तो दूसरे को आधा भरा।      


शादी और मँगनी के बीच और शादी के कुछ वर्षों बाद तक पति-पत्नी एक-दूसरे की खूबियाँ देखते हैं। यही वजह है कि इस अवधि में वे एक-दूसरे के बगैर रह नहीं सकते, मगर फिर दुनियादारी के पचड़े में वे एक-दूसरे से इतने विपरीत होते जाते हैं कि उनका एक-दूसरे के प्रति सोच सिरे से ही बदल जाता है।

ऐसा न हो इसके लिए हमें मुंशी प्रेमचंद के इस कथन पर ध्यान देना होगा, 'एक-दूसरे की खूबियों से ही नहीं, खामियों से भी प्यार करो।' दरअसल, कोई इंसान सर्वगुण संपन्न नहीं होता है और खामियों को टटोलने की प्रवृत्ति के चलते पारिवारिक रिश्तों, कार्यालयीन, व्यावसायिक, अन्य सांगठनिक संबंधों में खामियाँ ही नजर आती हैं। ऐसा नकारात्मक दृष्टि के कारण होता है।

सकारात्मक दृष्टिकोण मिलता है कबीर की इन पंक्तियों में, 'बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलया कोई, जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा ना कोय।' 'आत्मविश्लेषण से दृष्टि बदलती है, दृष्टि बदलने से सृष्टि बदलती है।'

सकारात्मक दृष्टि का ही परिणाम है कि हमें पत्थर में भगवान नजर आते हैं। आस्था जागृत होती है। हम सुख-दुःख में भगवान को याद करते हैं। अपनी मनोकामनाएँ प्रार्थना के माध्यम से भगवान के सामने रखते हैं। हम उस प्रस्तर प्रतिमा की पूजा करते हैं। उसके सामने माथा टेकते हैं और अगर हमारी दृष्टि नकारात्मक हो तो वह महज शिला खंड है। मूर्ति पूजा के विरोध के पीछे यही दृष्टिकोण रहा है। सारांश यह कि सारा खेल दृष्टि का है। कहा भी गया है कि 'नजरें बदलीं, तो नजारे भी बदल गए।'

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