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दर्पण नियरे राखिए सदा आपने संग

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-मनुदेव 'अभय'
आप और हमने अपनी छात्रावस्था में हिन्दी की पुस्तकों में एक दोहा पढ़ा था। इस प्रसिद्ध दोहे में कहा गया था- 'निंदक नियरे राखिए,आँगन कुटी छबाय।' अर्थात अपने आलोचक या निंदा करने यानी हमारे में बुराई देखने वाले से घृणा न करो।

परंतु ऐसे व्यक्ति को अपने मकान के परिसर में ही उसके रहने के लिए एक कुटिया बना दो, जिससे वह उसमें रहकर हमारे दोष देखता रहे और हमें सदा सावधान करता रहे। भावना और कल्पना का यथार्थ से दूर का भी संबंध नहीं है। जिन दिनों कवि ने इस दोहे की रचना की थी, उन दिनों देश में न तो सघन जनसंख्या थी और न ही आवास समस्या थी।

उदारता की सीमा तो यहाँ तक थी कि अपने ही परिसर में उसके लिए एक कुटिया बनाकर उसकी भी आवास समस्या हल कर उसे अपने दुर्गुण देखने का अवसर देते रहो।
ऐसा मनुष्य किस काम का जो औरों में केवल बुराई ही बुराई पाए। ऐसे बुरे आदमी के लिए कहा है-'बुरा जो देखन मैं चला, मुझ-सा बुरा न कोय।'
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आज के समय में जहाँ एक ओर मनुष्य भौतिकता में डूबकर बहुमंजिले भवन बना रहा है, वहाँ कुटिया को स्थान देना मानो खरगोश के सिर पर सींग देखने की कल्पना करना है। क्या मनुष्य में सदैव बुराई ही बुराई भरी रहती है और क्या उसे अपनी बुराई कभी नहीं दिखती।

मनुष्य को अच्छाइयाँ और बुराइयों का पुतला कहा गया है। ऐसा मनुष्य किस काम का जो औरों में केवल बुराई ही बुराई पाए। ऐसे बुरे आदमी के लिए कहा है-'बुरा जो देखन मैं चला, मुझ-सा बुरा न कोय।'

अन्यों में सदैव बुराई देखने वाले स्वयं बहुत बुरे होते हैं। मनुष्य के दो कान और दो आँखों के समान समाज में दूसरों की अच्छाइयाँ देखने वाले भी होते हैं। दानी, ज्ञानी, धार्मिक, परोपकारी तथा सेवा करने वालों की बड़े-बड़े समारोहों में प्रशंसा के गीत गाए जाते हैं। इससे इन सद्गुणों का व्यापक प्रचार होता है। ऐसे लोगों को सद्गुणी और प्रशंसक कहा जाता है।

कभी-कभी मनुष्य स्वार्थपूर्ति के लिए अन्यों की चाटुकारिता करने में कोई कमी नहीं करता। कहते हैं गधे के गले में सोने की माला देखकर धूर्त और चाटुकार गधे की महिमा खरेश्वर, वैशाख नंदन, सर्व भारवाही, मूकसेवक, अधिक काम कर कम विश्राम करने आदि वाक्यावलियों से चाटुकारिता की सीमा लाँघ जाते हैं। गधे की आँख बंद होते ही उसके गले की सोने की जंजीर ले भागते हैं।

ऐसे चाटुकार, चारण, भाट मनोवृत्ति के लोगों ने राजपूत राजाओं के राज्यों को नष्ट करवा दिया। प्रशंसा और चाटुकारिता में यह अंतर है कि प्रशंसा में वास्तविकता, उच्च चरित्र, उदात्त भावनाओं का वर्णन कर उत्साह और उमंगों को प्रोत्साहन दिया जाता है, तो चाटुकारिता वह मीठी छुरी है, जो हर ओर से मनुष्य को काटकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर नाश कर देती है।

कभी-कभी मनुष्य प्रशंसा सुनकर इतना फूलकर कुप्पा हो जाता है कि वह अपने असली स्वरूप ही भूल जाता है और स्वेच्छाचारी बनकर समाज में घृणित कार्य करने लगता है।

उपरोक्त तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य को चाटुकारों से दूर ही रहना चाहिए और साथ में प्रशंसकों से इतनी दूरी बनाए रखना चाहिए कि समय आने पर गुणों का ही मूल्यांकन कर उत्साहवर्द्धन करें। स्मरण रहे, चाटुकार व्यक्ति को गहरे गड्ढे में फेंक देते हैं, तो प्रशंसक उसे आकाश के तारे तोड़ने की कल्पना में डुबो देते हैं।

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