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प्राचीन मूर्तियों का ग्राम चोली

- अभिषेक चेंडके

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पाषाण व ताम्रकाल को सभ्यता का दूसरा चरण माना जाता है। मध्यप्रदेनर्मदा की घाटियों में ईसा से 2000 वर्ष पूर्व यह सभ्यता फल-फूल चुकी थी। अन्य काल में भी ये इलाके समृद्ध होते चले गए, लेकिन समय के थपेड़ खाकर अब ये सिर्फ एक 'सामान्य' गाँव बचे हैं। निमाड़ की घाटी में बसा चोली गाँव (मंडलेश्वर से 8 किमी दूर) भी इतिहास के लिहाज से खास महत्व रखता है।

गाँव में अब भी प्रतिहार-परमारकालीन (10वीं शताब्दी) मंदिर, मूर्तियाँ व अन्य ऐतिहासिक विरासतें हैं, लेकिन इसके संरक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। धार्मिक नगरी महेश्वर के समीप होने के बावजूद यह ऐतिहासिक गाँव पर्यटन से दूर है।

चोली गाँव का महत्व उसकी भौगोलिक स्थिति ने बढ़ाया था। दक्षिण में नर्मदा नदी और उत्तर में मालवा के पठार के कारण यह स्थान सुरक्षा व व्यापारिक मार्ग के मामले में महत्व रखता था। 'आईने अकबरी' पुस्तक के अनुसार चोली और महेश्वर मांडू सरकार के अधीन महत्वपूर्ण परगना रहे, जहाँ सेना की टुकडि़या रहती थीं।

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जब अहिल्या देवी ने महेश्वर को खासगी की राजधानी बनाया तब चोली गाँव का महत्व कम होता चला गया। अब इस गाँव के युवा नौकरी के लिए पीथमपुर, इंदौर की तरफ पलायन करने लगे हैं। गाँव में करीब 500 परिवार रहते हैं, लेकिन इतिहास की दृष्टि से अब भी गाँव की अहमियत कायम है।

क्या-क्या है गाँव में : गाँव में गणेश की 9 फुट ऊँची प्रतिमा सिर्फ एक पत्थर पर निर्मित है। भैरव मंदिर पर एक शिलालेख भी है। तालाब किनारे एक दीपस्तंभ भी है। साढ़े ग्यारह हनुमान (11 पूर्ण मूर्ति और 1 अधूरी मूर्ति) की मूर्ति भी गाँव में है। इतिहासकार शशिकांत भट्ट का कहना है कि मूर्तिकला लक्षणों के आधार पर प्रतिहारकालीन मानी गई है। सरपंच रामकूबाई का कहना है कि ग्रामीण जब खुदाई करते हैं तो बर्तन, मूर्तियों के अवशेष निकलते हैं।

होलकर काल में भी गौरी सोमनाथ मंदिर का निर्माण गौतमाबाई होलकर ने कराया था।

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