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फूल वालों की सैर' का मेला

धूमधाम से मनाते हैं हिंदू-मुसलमान

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हमें फॉलो करें मिर्जा जहांगीर
- हीरेंद्र
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राजधानी दिल्ली में हर साल हिंदू और मुसलिम समुदायों द्वारा धूमधाम के साथ मनाया जाने वाला फूल वालों की सैर मेला एक बेबस माँ की दुआओं का असर है। दरअसल, दिल्ली के अंतिम सम्राट बहादुरशाह जफर के भाई मिर्जा जहांगीर द्वारा अंग्रेज अफसर रेजीडेंट सैटिन के साथ किए गए मजाक ने राजधानी में फूल वालों की सैर की नींव रखी थी।

दिल्ली में उन दिनों अकबर शाह द्वितीय (1806 से 1837) सुलतान थे पर हुकूमत अंग्रेजों की ही चलती थी। अंग्रेज सरकार की ओर से बादशाह को दो लाख रुपए माहवार मिलता था। उस समय एक अंग्रेज रेजिडेंट लालकिले में रहता था। कोई भी हुक्म जारी करने से पहले बादशाह को उसकी इजाजत लेनी होती थी।

एक दिन मिर्जा जहांगीर ने अंग्रेज रेजिडेंट सैटन को मजाक में लूलू है बे लूलू है कह दिया। सैटिन समझ गया फिर भी उसने मिर्जा के साथियों से पूछा कि साहब आलम क्या कह रहे हैं। साथियों ने बात संभालते हुए कहा कि मिर्जा ने लूलू यानी आपको आबदार मोती कहा है। इस पर सैटिन ने पलट कर कहा कि अब हम साहब आलम को लूलू बनाएगा।

मिर्जा जहांगीर ने ताव में आकर सैटिन के ऊपर तमंचे से फायर कर दिया। अफसर तो बच गया पर ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से आदेश सुना दिया गया कि शहजादे को प्रशिक्षण की जरूरत है। अतः वह इलाहाबाद में रहेंगे। मिर्जा जहांगीर की माँ नवाब मुमताज महल का बेटे के लिए रो-रो कर बुरा हाल हो गया। तभी उन्होंने मन्नत माँगी कि जब मिर्जा जहांगीर छूटकर दिल्ली आएँगे तो कुतुब साहब में ख्वाजा बख्तियार काकी के मजार पर फूलों का छपरखट और गिलाफ चढ़ाएँगीं।

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कुछ दिनों बाद ही खबर मिली कि सैटिन के हुक्म पर मिर्जा जहांगीर को आजाद कर दिया गया है। उन्हें इलाहाबाद से दिल्ली लाते समय जगह-जगह स्वागत किया गया। बादशाह की बेगम यानी मिर्जा जहांगीर की माँ ने धूमधाम के साथ ख्वाजा बख्तियार काकी की मजार पर चादर चढ़ाई । इस मौके पर शहर भर के हिंदू-मुसलमानों सहित सभी धर्मों के लोग शामिल हुए।

इस मौके पर फूल वालों ने जो मसहरी बनाई उसमें फूलों का एक सुंदर पंखा भी लटका दिया था। कई दिनों तक महरौली इलाके में धूमधाम और मेला लगा रहा। बादशाह को यह सब इतना भाया कि उन्होंने इस मेले का आयोजन हर साल किए जाने की घोषणा कर दी।

उन्होंने हिंदू और मुसलिम आबादी के बीच आपसी प्रेम बढ़ाने के लिए घोषणा की कि हर साल भादों महीने में मुसलमान दरगाह शरीफ पर और हिंदू योगमाया के मंदिर में पंखा चढ़ाएँगे। पर दोनों ही जगहों पर हिंदू और मुसलमान मिलकर शरीक होंगे। बस यहीं से फूल वालों की सैर की शुरुआत हुई जिसे सैर-ए-गुलफरोशां भी कहा जाता है।

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