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बौद्धिकता, सत्ता एवं बुद्धि : कृष्णमूर्ति-8

आतंकवाद पर कृष्णमूर्ति के विचार

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- अनुवाद प्रो. कावुल कानूनगो
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हममें से अनेक के लिए, इस आंतरिक क्रांति को हासिल करना अत्यंत मुश्किल है। हम जानते हैं कि ध्यान कैसे दिया जाए पियानो कैसे बजता है, लिखते कैसे हैं- किन्तु हमें ध्यानकर्ता का, वादक का, लेखक का ज्ञान नहीं है। हम सर्जक नहीं हैं, क्योंकि हमने सूचनाओं और हठधर्मिताओं और सामान्य ज्ञान से अपने दिलोदिमाग को भर रखा है। हमारे पास दूसरों के बताए हुए उद्वरण होते हैं, लेकिन अनुभव पहले आता है, अनुभव करने का तरीका बाद में। प्रेम के इजहार के पूर्व प्रेम होना चाहिए।

अतः यह स्पष्ट है कि बौद्धिकता और बुद्धि में भेद है। बौद्धिकता का मतलब है कि वह ऐसा विचार है जो भावना के बिना अस्तित्व में है, जबकि बुद्धि का अर्थ है कि वह महसूस करने और तर्क करने की क्षमता है। यदि हम जीवन की ओर बुद्धिमत्ता के द्वारा नहीं बढ़ेंगे और सिर्फ बौद्धिकता के ही भरोसे रहेंगे अथवा सिर्फ भावनाओं से ही काम चलाने का प्रयास करेंगे तब तो बर्बादी और सत्यानाश से हमें कोई भी शैक्षिक या राजनीतिक प्रणाली बचा नहीं सकेगी।

ज्ञान की बुद्धि से तुलना नहीं हो सकती और ज्ञान को विवेक भी नहीं मान सकते। विवेक भी वस्तु की तरह नहीं है। विवेक को पुस्तकों में भी खोजा नहीं जा सकता, उसे इकट्ठा भी नहीं किया जा सकता, याद भी नहीं रखा जा सकता है। विवेक को स्व के त्याग से ही पाया जा सकता है। ज्ञान-सीख की अपेक्षा खुला दिमाग रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है और सूचनाओं के रहने से दिमाग खुला नहीं रखा जा सकता।

उसे तो हमारे अपने विचारों और भावों के बाबद सचेत रहने से और अपने स्वयं को एवं अपने ऊपर गिरते प्रभावों को परख-जाँच करने से, दूसरों की बातें सुनने-समझने से, गरीब और अमीर का भेद जानने से, शक्तिशाली और कमजोर का अर्थ समझने से खुला दिमाग कहा जा सकता है। विवेक को भय और दबाव से हासिल नहीं किया जा सकता, लेकिन उसे दैनंदिन घटने वाले मानवी संबंधों के अवलोकन और समझ से पाया जा सकता है।

ज्ञान की खोज के पीछे पड़कर और अपनी इच्छाओं की तृप्ति करने के लिए, हम प्रेम को त्याग रहे हैं एवं सौंदर्य की अनुभूति को बिगाड़ रहे हैं और क्रूरता के प्रति विरोध को ठंडा कर रहे हैं, हम ज्यादा से ज्यादा विशेषज्ञ होते जा रहे हैं, लेकिन कम से कम सुसम्बद्ध हो रहे हैं।

ज्ञान जरूरी है, विज्ञान का अपना महत्व है, लेकिन यदि मन और मस्तिष्क, दिलो-दिमाग को ज्ञान से ठूँसकर भर दिया जाए और दु:ख के कारणों की व्याख्या बता दी जाए तब तो जीवन व्यर्थ और निरर्थक हो जाएगा। यही है कि हमारी शिक्षा हमें अत्यंत उथला बनाए जा रही है। आज की शिक्षा हमारे अस्तित्व की गहरी परतों को खोल नहीं पा रही है, इसीलिए हमारी जिंदगियाँ नीरस और खोखली होती जा रही हैं।

सूचना एवं तथ्यों का ज्ञान चाहे जितना आगे बढ़ रहा हो, वे उनकी अपनी प्रकृति के कारण ही सीमित होते हैं। 'विवेक' असीम और अथाह है, उसमें ज्ञान और कर्म समाहित है, लेकिन हम केवल किसी एक टुकड़े को पूरा समझने की गलती करते हैं और संपूर्ण का आनंद कभी नहीं ले पाते। बौद्धिकता संपूर्ण की ओर कभी नहीं ले जा सकती, क्योंकि बौद्धिकता स्वयं ही एक टुकड़ा है।

हमने बौद्धिकता को अनुभव से दूर कर दिया है और भावनाओं की कीमत पर बौद्धिकता को प्राप्त किया है। हमें बौद्धिक बनने की शिक्षा दी जाती है, हमारी शिक्षा हमारी बौद्धिकता को पैनी, चतुर, अभिग्रहण करने वाली बनाती है। हमारे जीवन पर उसकी बड़ी भारी भूमिका है। बुद्धिमत्ता वास्तव में बौद्धिकता से बहुत ज्यादा बड़ी होती है, क्योंकि वही प्रेम और तर्क के बीच सुसम्बद्धता का दूसरा नाम है और आत्मज्ञान के द्वारा एवं अपने स्वयं के अस्तित्व की समूची प्रक्रिया के द्वारा समझ होने पर ही बुद्धिमत्ता को प्राप्त किया जा सकता है।

मनुष्य के लिए जरूरी क्या है? यही कि वह संपूर्ण रूप से और सुसम्बद्ध होकर जीवन बिताए, इसीलिए बुद्धिमत्ता को सँवारने से ही सुसम्बद्धता हासिल होती है। किसी खण्डित बनावट पर जोर देने से जीवन का बिगड़ा हुआ रूप ही उभरेगा। अतः मानवीय समस्याओं की ओर सुसम्बद्ध दृष्टिकोण से ही देखना अत्यंत आवश्यक है।

सुसम्बद्ध मानव बनने का मतलब है कि अपनी चेतना के प्रच्छन्न और खुली दोनों ही प्रक्रियाओं को समझना और यह बौद्धिकता को अत्यधिक महत्व देने से संभव नहीं हो सकता। हम दिमाग को विकसित करने के लिए बहुत ज्यादा महत्व देते हैं, लेकिन आंतरिक रूप से हम अपर्याप्त, दरिद्र और भ्रमित हैं। बौद्धिकता का यह जीवन खंडित है, क्योंकि विश्वासों की तरह विचार भी विरोधी समूहों को सहयोगी नहीं बना सकता।

जब तक हम विचारों को सुसम्बद्धता प्राप्ति का साधन मानते रहेंगे तब तक विखंडन होता चला जाएगा और विचार के खंडित एक्शन को समझने के लिए स्व के तौर-तरीकों को अपने स्वयं की लालसाओं को समझना जरूरी है। हमें हमारी सामूहिक भी और वैयक्तिक भी दोनों ही दिशाओं के प्रति जाग्रत रहना होगा। उस वक्त ही कि जब हम स्व की गतिविधियों और चीजों के पीछे भागने की परस्पर विरोधी लालसाओं के बाबद पूरी तरह चेतन हो जाएँगे, तभी स्व के पार जाने की सम्भावना बनेगी।

प्रेम और सही सोच ही सच्ची क्रांति को लाएँगे जो हमारे अपने ही भीतर है, लेकिन प्रेम के किसी आदर्श का पीछा करके हम प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकते। शोषण, लालच और द्वेष से मुक्ति जरूरी है।

प्रेम और सही सोच के बिना शोषण और क्रूरता बढ़ती जाएगी। शांति के किसी आदर्श का अनुकरण करके मानव-मानव की एक-दूसरे के प्रति दुश्मनी को दूर नहीं किया जा सकता है, लेकिन मानव-मानव के बीच इस दुश्मनी को युद्ध के कारणों की उस समझ के द्वारा दूर किया जा सकता है कि जो जीवन के प्रति हमारे रवैये में बसी है। वह समझ सही प्रकार की शिक्षा के द्वारा प्राप्त की जा सकती है।

हृदय परिवर्तन के बिना, स्वेच्छा के बिना, आंतरिक परिवर्तन के बिना कि जो आत्मचेतना से उत्पन्न होती है, कोई भी शांति और सुख प्राप्त नहीं हो सकत। (समाप्त)

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