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देवेन्द्र जोशी
धर्माचार्यों के सत्संग और अध्यात्म चिंतन के दौरान चर्चा में रहने वाला एक प्रमुख वाक्य है- ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या। इस शास्त्रोक्त वाक्यांश में समूची चराचर सत्ता के ध्रुव सत्य को मथकर रख दिया गया है। हालाँकि इसमें निहित भाव सूरज के उजाले की तरह साफ हैं, लेकिन अपनी अल्पज्ञता के कारण संसारी लोग इसका भिन्न-भिन्न अर्थ निकालते हैं। इस छोटे-से वाक्यांश में 'ब्रह्म सत्य है' को लेकर किसी को कोई संशय नहीं है।
सर्वज्ञ से लेकर अल्पज्ञ तक 'ब्रह्म सत्य है' का यही अर्थ निकालते हैं कि ईश्वर अर्थात परमेश्वर सत्य, सनातन, नित्य और सदाकायम रहने वाली सत्ता है। इसके अलावा संसार में जो भी कुछ है वह अस्तित्वहीन, नश्वर है, क्षणभंगुर और अनित्य है। इसीलिए जगत को मिथ्या कहा गया है।
ब्रह्म के सत्य होने को लेकर जितनी सहमति है, जगत के मिथ्या होने को लेकर उतनी ही व्याख्याएँ सामने आती हैं। जगत को मिथ्या मानकर इस संसार को क्या कुछ नहीं कहा गया। इसकी शुरुआत ही संसार को मिथ्या अर्थात झूठा कहने के साथ होती है। व्याख्या आगे बढ़ती है तो जगत मिथ्या को संसार की सारहीनता, भौतिकता और उसकी नाशवान प्रकृति के रूप में परिभाषित किया जाता है। अतिशयोक्ति के आवेग में जगत मिथ्या के नाम पर संसार को कभी-कभी इतना निकृष्ट, निरर्थक और गया-गुजरा बता दिया जाता है कि जिज्ञासु मन प्रश्न करने लगता है कि अगर संसार इतना ही महत्वहीन है तो इसकी रचना ही क्यों की गई?
सच यह है कि ब्रह्म अर्थात परमेश्वर की तुलना में यह संसार अस्थायी है। ईश्वर स्थायी सत्ता है और संसार की प्रत्येक वस्तु एक न एक दिन नष्ट होने वाली है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि जगत मिथ्या है तो मनुष्य इस संसार में आकर कोई काम ही न करे। वास्तविकता यह है कि जगत के मिथ्या होने के बावजूद संसार एक ऐसी हकीकत है जिससे होकर हर प्राणी को गुजरना पड़ता है।
संसार रोचक, मजेदार और आकर्षक है तभी तो उसकी आवृत्ति सीमित है। यह तो माँग और पूर्ति का सामान्य सिद्धांत है कि जिस चीज की जितनी अधिक माँग होती है उसका मूल्य उतना ही ऊँचा और आपूर्ति सीमित होती है। चूँकि संसार खुशियों का खजाना, उपभोग का आगार है इसलिए उसकी आपूर्ति को सीमित रखा गया है। यह सीमितता ही संसार की अनित्य प्रकृति की ओर इंगित करती है।
जिस तरह प्रकाश का अस्तित्व अंधकार के कारण है, उसी तरह ब्रह्म सत्य इसी कारण है, क्योंकि जगत मिथ्या है। जिस दिन संसार भी परमेश्वर की भाँति नित्य, सनातन हो जाएगा उस दिन ईश्वर को कौन पूछेगा? अतः जगत को मिथ्या मानकर उसे अकेला छोड़ने के बजाय पल-दो पल का साथी मानकर साथ निभाने में ही जीवन की सार्थकता है।