Ramcharitmanas

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

लोकमान्य तिलक का 'ओरायन' ग्रंथ

- वीके डांगे

Advertiesment
हमें फॉलो करें बाल गंगाधर तिलक
ND

बाल गंगाधर तिलक की लोक मान्यता उनके राजनीतिक व सामाजिक कार्यों के कारण ही नहीं अपितु वैज्ञानिक शोध-वृत्ति के कारण भी थी। अपनी इसी शोध-वृत्ति के चलते उन्होंने ओरायन जैसा ग्रंथ लिखा। ओरायन, मृगशीर्ष/ मृगशिरा नक्षत्र का ग्रीक नाम है। ग्रंथ का पूर्ण नाम 'ओरायन या वैदिक प्राचीनता की खोज' है। इसके लेखन की प्रेरणा लेखक को गीता के श्लोकार्ध- 'महीनों में मैं मार्गशीर्ष व ऋतुओं में वसंत हूँ' (गीता, 10-35) से मिली।

लेखक ने भाषाशास्त्र, शब्दव्युत्पत्ति, वैदिक कथानकों के अतिरिक्त गणितीय आधार से दर्शाया कि ग्रीक, फारसी व भारतीय आर्यों का एक ही मूलस्थान था, जहाँ से वे स्वदेशों में गए। ओरायन (मृगशीर्ष, मृगशिरा) नक्षत्र के साथ जु़ड़ी ग्रीक, पारसी व भारतीय कथाओं का अद्भुत साम्य, तीनों जातियों के एक ही मूलस्थान का प्रमाण है। इससे जु़ड़ी ग्रीक कथा है कि ओरायन एक शिकारी व योद्धा था, जो किसी कारण मारा गया। उसका सिर, मृग के सिर के रूप में, मृगशीर्ष नक्षत्र है। पास ही शिकारी के दो 'श्वान' तारों की आकृति में हैं।

एक रेखा में तीन तारे, शिकारी का कमरपट्टा है। उपनयन संस्कार में भी ग्रीक, पारसी व भारतीय आर्यों में परंपरा साम्य है। तिलक कहते हैं कि यज्ञोपवीत में वीत का अर्थ बुना हुआ वस्त्र है। यह तीनों प्रकार के आर्य कमर में लपेटकर रखते थे। पारसियों में भी यज्ञोपवीत संस्कार होता है। तिलक के अनुसार जनेऊ का प्रचलन काफी बाद में आया, संभवत जनेऊ के तीन धागे, मेखला की तरह तीन सोम-गाँठों को बताते हैं।

'ओरायन' ग्रीक शब्द का मूल संस्कृत में है। मृग में वसंत बिंदु से वर्षारंभ होता है, अतः इसे अग्रहायन, अग्रायन यानी पथारंभ कहा है। 'ग' के लोप से यह अग्रायन, ओरायन बनता है। इसी तरह पारसी शब्द, पौरयानी है जो 'प' लोप करके, ओरायन बनता है। अग्रहायन, अग्रायन का अपभ्रंश 'अगहन' है जो मार्गशीर्ष मास में किसी समय, वर्षारंभ का प्रतीक है। पूरे ग्रंथ में तिलक ने वैज्ञानिक तटस्थता से सत्य खोजा है। उन्होंने प्रस्तावना में कहा है कि उनकी मान्यताएँ अंतिम नहीं हैं। इसी ग्रंथ से उन्होंने वेदों की प्राचीनता के साथ उनसे जु़ड़े उपनिषद, संहिता, ब्राह्मण इ. ग्रंथों के काल को 6000 से 500 ई.पू. तक के चार कालखंडों में बाँटा।

185 पृष्ठों का यह ग्रंथ दीर्घ निबंध के रूप में लंदन में 1892 ई. में आयोजित नवम प्राच्याविधा परिषद में प्रस्तुत था, परंतु बड़े आकार के कारण संक्षेपित शोध-पत्र के रूप में प्रस्तुत हुआ। इससे पाश्चात्य विद्वानों ने माना कि लीक से हटकर लेखक ने सोचा व स्वतंत्र निर्णयात्मक व विवेचनात्मक प्रतिभा का परिचय दिया जो 'बाबावाक्यं प्रमाणम्' सोच के ठीक विरुद्ध है। मात्र 35-35 वर्ष की आयु में लिखे इस ग्रंथ का स्तर, शोध उपाधि के अनंतर की उपाधि (पोस्ट डॉक्टोरल) के स्तर का है।

तिलक को इस ग्रंथ पर डी.एससी/डी. लिट् उपाधि मिल सकती थी। ओरायन का अचानक राजकीय लाभ तिलक को मिला। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ओरायन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तिलक के लिए मध्यस्थता करते हुए उन्हें जेल से मुक्ति दिलाई। वैसे उनके विरुद्ध कोई दृढ़ प्रमाण भी नहीं थे।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi